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________________ १८६ औपपातिकतरे या उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-पारिटावणिया-समिया मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुतिंदिया गुत्तबंभयारी अममार्कितयोनिक्षेपणे--अवस्थापन समिता -मुप्रनिलेसन-प्रमार्जनाचुपयोगपूर्वकप्रवृत्तियुक्ता , 'उच्चार पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-पारिद्वारणिया-समिया' उचार-प्रनपण- लेप्म-जल शिवाण-परिठापनिका-समिता , तन-उचार -पुरीपम्, प्रसवण-मून, सेल लेष्मा, उपलक्षण त्वानिष्ठीवनस्यापि ग्रहणम् , जल-स्वेटजमलम् , गिहाण-नासिकामलम् , एतेषा परिष्टापनिकापरिष्ठापना-परित्याग -सैव परिष्टापनिका, स्वार्थ क , तस्या समिता , शुद्धस्थण्डिलाश्रयणासम्यगुपयुक्ता । 'मणगुत्ता' मनोगुप्ता -(१) निविधा मनोगुप्तयः-आतरौद्रध्यानानुबन्धिकल्पनाजालनियोग प्रथमा (२) शास्त्रानुसारिणी परलोकसाधिका धर्मध्यानानुबन्धिनीमाध्यस्थ्य परिणतिद्वितीया, (३) सफल्मनोवृत्तिनिरोधेन योगनिरोधाऽमस्याभाविनी-आमरमणरूपा अर्थात् पात्र एव वस्त्रादिक उपकरणों के सुप्रतिलेखन प्रमार्जनादिक में ये सब उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले थे। (उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-पारिहा पणिया-समिया) उच्चार-पुरीप, प्रस्रवण-मूत्र, खेल-लेप्मा, उपलक्षण से निष्ठीवन थूकना, जल्ल-स्वेदज मेल, शिंघाण-नासिका का मेल, इन सरके परिष्ठापन-रूप समिति से युक्त थे। (मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता) गुप्ति तीन प्रकार की है-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति, इनमें मनोगुप्ति तीन प्रकारको है-आर्त एव रौद्रध्यान का परित्याग करना प्रथम मनोगुप्ति है, शास्त्र के अनुसार, परलोक की साधक और धर्मध्यान के साथ अनुबन्ध रखने वाली माध्यस्थ्यपरिणतिरूप द्वितीय मनोगुप्ति है। सकल मनोवृत्ति के निरोध से योगों की निरोधावस्था में होनेवाली परिणति-आत्मा में रमणरूप परिणति સુપ્રતિલેખન અને પ્રમાર્જન આદિકમા તે બધા ઉપગપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવાવાળી उता (उच्चार पासवण-खेल जल्ल सिघाण पारिद्वारणिया-समिया) प्यार-पुरीष, પ્રસવણ-મૂત્ર, ખેલલેષ્મા, ઉપલક્ષણથી નિષ્ઠીવન-ધૂકવુ, જલ-પરસેવાને મેલ, शिंधा-४ने भेस, म सधान परिहायन३५ समितिथी युति ॥ (मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता) अति जानी भनाशुति, पयनप्ति मने अयशुसि, તેમાં મને ગુપ્તિ ત્રણ પ્રકારની છે--આર્તા તેમજ રૌદ ધ્યાનને પરિત્યાગ કરવો એ પ્રથમ મનગુપ્તિ છે, શાસ્ત્રને અનુસરનારી પરલેકની સાધ૮ અને ધર્મધ્યાનની સાથે અનુબ ધ રાખનારી માધ્યય્યપરિણતિરૂપ બીજી મને ગુપ્તિ છે બધી મને વતિ માત્રના નિધથી મેંગેની નિરાધાવસ્થામાં થનારી પરિણતિ-આત્મામા
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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