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________________ १६१ पीयूपयर्पिणी-टीका सू. २४ भगवदन्तेयामिवर्णनम नोपातेन नन्तनान गच्छन्ति, ततो द्वितीयो पातेन पण्टकचनम, तत प्रतिनिवर्तमाना एकेननोत्पातेन ग्रस्थानमागच्छन्ति । पण्डकपनादृर्ष तेषा गतिनास्ति । येऽमाष्टमनिरन्तरतप करणेनाऽऽ मान भावयन्ति तेषा जयाचाग्णनाम:लन्धि समुपद्यते, ये तया लच्या युक्तान्त जड्याचाग्गा उच्यन्ते । जयाचारणास्तिर्यगगया केनोपातेनंतत्रयोटा मचकवीप गच्छन्ति, तत पर तेपा गतिर्नास्ति, तत प्रनिनिवर्तमाना प्रथमोपातेन नन्दीश्वरवा टीपमागउन्नि, द्वितीयोपातेन स्वस्थानम् । ते पुनर्चगया मे जिगमिपर म्वन्यानादेको पत्या पण्टकवनमपिगेहन्ति । तत प्रतिनिवर्तमाना प्रथमोपातेन नन्तनानमागच्छन्ति, ततो द्वितीयो पातेन स्वस्थानमायान्ति । पण्डकानादृचं जट्याचारणानामपि गतिर्नास्ति । पण्डऊरन तक चले जाते हैं। फिर वहा मे लौटकर एक ही उलाग में अपने स्थान पर वापिम आजाते है । पण्डकरन से आगे टनका गमन नहा है । जपाचारण नामकी लन्धि उन माधुजनों को प्राप्त होती है, जो निरन्तर-अन्तरहित अष्टम की तपस्या करते हैं। टम लयिसपन्न मुनिजन यदि निग्छे गमन करे तो प्रथम ही उत्पात में तेरहवा द्वाप जो रुचकर द्वीप है वहा तक पहुंच जाते हैं, इसके आगे नहीं जाते है । क्यों कि आगे इनकी गति नहीं होती है। वहा से वापिस होकर ये प्रथम उपात में नन्दीश्वर द्वीप आ जाते हैं और द्वितीय उत्पात में अपने स्थान पर आ जाते हैं। यदि ये ऊपर की ओर उडे और मेस्पर्वत पर जाने की इच्छावाले हो तो अपने स्थान से एक हा उपात मे पण्डकपन में पहुँच जाते हैं। वहा से जन ये वापिस होते हे तो प्रथम उपात में ये नदनगन आजाते है और फिर द्वितीय उपात से अपन स्थान पर । पण्डकरन से आगे जपाचारणवालों की भी गति नहीं है। સુધી જાય છે, અને બીજા ઉત્પાતથી ૫ ડકવન સુધી ચાલ્યા જાય છે પછી ત્યાથી પાછા આવતા એક જ છલાગમા પિતાના સ્થાન પર પાછા આવી જાય છે પડકવનથી આગળ તેમનુ ગમન નથી જંઘાચારણ નામની લબ્ધિ એ સાધુઓને પ્રાપ્ત થાય છે કે જે નિરતરસતત અષ્ટમ–અદમની તપખ્યા રે છે આ લબ્ધિવાળા મુનિજને જે તિરછા ગમન કરે તે પ્રથમ જ ઉત્પાતમા તેરમે દીપ જે રૂચકવર નામે દ્વીપ છે, ત્યા સુધી પહોંચી જાય છે, તેનાથી આગળ નથી જતા, કેમ કે આગળ તેમની ગતિ થતી નથી ત્યાંથી પાછા વળતા તેઓ પ્રથમ ઉત્પાતમાં નદીધરદીપ આવી જાય છે, અને બીજા ઉત્પાતમા પિતાના સ્થાન પર આવી જાય
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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