SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पीयूषषिणो-टीका स २४ भगयदन्तेयासियर्णनम् महावीरस्म अंतेवासी वहवे निग्गंथा भगवंतो, अप्पेगइया आभिणियोहियणाणी जाव केवलणाणी, अप्पेगइया मणवलिया अन्तेवासिन -शिष्या 'वहवे' बहन-बहुसरयका , 'निग्गया' निम्रन्या -प्रन्यो द्विविध आभ्यन्तरो बायश्च, ता-पायादिरूप आभ्यन्तर , धनधान्यादिपरिग्रहरूपो वाह्य , तेन द्विविधैन बाह्याभ्यन्तररूपेण अन्येन निर्मुक्ता निर्मन्या , अपना ग्रन्थानिर्गता निम्रन्या -क्रोधादिभिर्धनादिभिश्च मुक्ता इत्यय , भगवन्त 'अप्पेगडया' अप्येककेकेचित् 'आभिणियोहियणाणी' आभिनिनोधिकनानिन –' अभि' इति आभिमुग्ये, 'नि' -इति नैयत्ये, ततश्च-अभिमुरगो वस्तुयोग्यदेशाऽवस्थानाऽपेभी बोध - अभिनिवोध , स एव आभिनियोधिकम् , स्वाय पिनयादित्वात् इकण् प्रत्यय , कवि स्वार्थिकोऽपि प्रत्यय प्रकृति वचनचातिवर्तते, तेन अभिनिगोरस्य पुस्त्वेऽपि आभिनियोपिकस्य नपुसकत्य, यथा विनय एव वैनयिकम् , आभिनिनोधिक च तज्ज्ञानम् आभिनिवोधिकज्ञानम्, तदस्त्येपामित्याभिनिनोधिज्ञानिन, 'जाव' यानत् 'केवलगाणी' केवलजानिन – केरल - शुद्ध - निर्मल - सफलाऽऽरणमलकलङ्करिगमसम्भूत मात्, अथवा थे, जो (निग्गथा) वाह्य एव अन्तरग परिग्रह के सर्वथा त्यागी थे, तथा (भगवतो) त्याग एव वैराग्य से जिनका अन्त करण भरपूर था । इनमे (अप्पेगइया) कितने (आभिगियोहियनाणी) आभिनियोधिक ज्ञानी थे । जो ज्ञान अभिमुस एव योग्यक्षेत्र में स्थित वस्तु को इद्रिय और मनकी सहायता से जानता है वह अभिनियोव है, अभिनिनोन ही आभिनिरोधिक है । आभिनिरोधिक ज्ञान का दूसरा नाम मतिज्ञान है । इस ज्ञान से जो युक्त थे वे आभिनियोधिकजानी कहे गये है। (जाव केवलणाणी) कितनेक श्रुतज्ञानी थे, कितनेक अवधिज्ञानी थे, कितनेक मन पर्ययज्ञानी थे और कितनेक केवलज्ञानी शिध्या त (निग्गथा ) २ मा तम मत परिहना सवथा त्या ता, तथा (भगवतो) त्यागतमा वैशयथा भन। यत ४२९१ सरपूर ता. तेमाभा (अप्पेगइया) 3ामे (आभिणियोहियनाणी) मिनिमाधिજ્ઞાની હતા જે જ્ઞાન અભિમુખ એટલે ગ્ય ક્ષેત્રમાં રહેલ વસ્તુને ઈદ્રિય અને મનની સહાયતાથી જાણે છે તે અભિનિષેધ છે અભિનિબંધ એજ આમિનિબેધિક છે આભિનિધિક જ્ઞાનનું જ બીજુ નામ મતિજ્ઞાન છે આ જ્ઞાનથી જે યુક્ત હતા તેમને જ આભિનિધિજ્ઞાની કહેવામાં આવે छ (जाय केवलणाणी)seal.8 श्रुतनानी ता, सा सवधिमानी उता, કેટલાએક મન પર્યયજ્ઞાની હતા, તથા કેટલાએક કેવલજ્ઞાની હતા કેવલ
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy