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________________ औपपातिकसूत्रे. शयपानद्वागीगुणोपेतत्यात्, तेभ्य 'लोगनाहाण लोकनाथेभ्य, लोकानां = योगक्षेमकारित्वादिति लोकनायास्तेभ्य । "लोगहियाण भन्याना नाथा = नेतारो लोकस्य = भन्यजनसमुद्रायस्य विशिष्टात्मतत्वप्रकाशक लोकहितेभ्य लोक - एकन्द्रियादि सर्वप्राणिगणस्तम्मे हिता रक्षोपा पथप्रदर्शकबा लोकहितास्तेभ्य । 'लोगपई राण' लोकप्रतीपेभ्य, प्रदीपास्तन्मनोऽभिनिनिष्ठानादिमिया तम पटल यपगमेन त्वात्प्रदीपतु यास्तेभ्य । यथा प्रदीपस्य सकलजनार्थं तुल्यप्रकाशकत्रेपि चक्षुष्मन्त एव तत्प्रकाशसुखभाजेो भवन्ति नास्तथा भञ्या एव भगवदनुभागममुदभूतपरमानन्दसन्दोह भाजेो भवन्ति नाऽभच्या इति प्रतिनधि प्रदीपटान्त, अत एव चा, लोकपदेन भन्यानामेन ग्रहम् । 'लोगपज्जोयगराण' लोकप्रयोतकग्भ्य - चौतीस अतिशयों एवं पेंतीस वाणी के गुणों से युक्त होने से प्रभु लोकोत्तम कहलाते है, ऐसे उनके लिये 'नमस्कार हो । ( लोगनाहाण ) भव्यजीवों के योगक्षेम-कारी होने से लोकनाथ प्रभु को नमस्कार हो । ( लोग हियाग ) एकेन्द्रिय प्राणियों से लेकर पचेन्द्रिय पर्यन्त समस्त जीवों से व्याप्त इस ग्लोक के लिये रक्षाके उपायभूत मार्ग के प्रदर्शक होने से लोकहितस्वरूप प्रमुक्के लिये नमस्कार हो । (लोगपवाण) भव्यजनों के मन मे अनादिकाल से ठसाठस भरे हुए मिथ्यात्वरूपी अन्धकार के पटल के विनाश से निशिष्ट आत्मतत्त्व के प्रकाशक होने से भगवान् प्रदीपतुच्य है, जिस प्रकार दीपक सकल जीवों के लिये समान प्रकाशक होता हुआ भी चक्षुष्मान जीवों के लिये विशेष आनदप्रद होता है उसी प्रकार प्रभु को लखकर भव्य जीव ही अमन्द आनद के सद्रोह से सुखी हुआ करते हैं, ऐसे लोक के प्रदापस्वरूप को नमस्कार ? LET 1-1 પાત્રીશ વાણીના ગુણાથી યુકત હાવાથી પ્રભુ લેાકેાત્તમ કહેવાય છે, ' તેમને नमस्कार है। (लोगनाहाण ) लव्य लवोना योगक्षेम डरनार होवाथा बोडनाथ अलुने नमस्४२ हो (लोगहियाण) भेडेद्रिय आणिशोथी भाडीने पथेद्रिय પન્ત સમસ્ત જીવાથી વ્યાપ્ત આ લાકના માટે રક્ષાના ઉપાયભૂત માના अहर्श होवाथी बोडडितस्य प्रभुने नभस्वार से (लोगपईनाण) लव्य बनाना મનમા અનાદિકાલથી સાઠસ ભરેલા મિથ્યાત્વરૂપી અ ધકારના સમૂહના વિનાગથી વિશિષ્ટ આત્મતત્વના પ્રકાશક હોવાથી ભગવાન પ્રદીપ સમાન છે, જેમ દીવા બધા જીવાને સમાન પ્રાળક હોય છે છતા ચક્ષુવાળા જીવાને વિશેષ આન પ્રશ્ન થાય છે તેવી રીતે પ્રભુને જોઈ ભવ્ય જીવા જ ઘણે! આનદ મેળવીને सुख आप्स ४रे छे, मेवा बोडना अहीयस्पश्यने नमार है। [लोयपज्जोयगराण ] 2
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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