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________________ अमगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १७ नौकारणिग्यर्णनम् ५८९ पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मास्वामीप्राह-एव खलु हे जम्नः तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिशीपं नाम नगरमासीन् । 'अण्णो' वर्णकः= ऋद्धे' त्यादिनगरवर्णनम् पूर्वपद् विज्ञेयम् । तत्र खलु कनककेतुर्नाम राजाऽऽसीत् ‘वणी ' वर्णक:-' महयाहिमवते ' त्यादि राजवर्णन पूर्ववद् सोध्यम् । तर खलु हस्तिशी मस्स ण भते ! जायज्ञयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जाव सपतेण के अटे पणत्ते) सोलहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोतस्प से अर्थ प्ररूपित किया है तो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए उन्हीं श्रमण भगवान् महावीर ने सत्रहवें ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ प्रस्पित किया है (एव खलु जबू!) इस प्रकार जयू स्वामी के पूछने पर सुध. मा स्वामी अब उन्हें समझाते हैं-वे कहते है हे जबू! तुम्हारे प्रश्न का उत्सर इस प्रकार है: (तेण कालेण तेण समएण हत्यिसीसे नयरे होत्या, वण्णओ, तत्य, ण कणगकेजणाम राया होत्या, वण्णओ, तत्य, ण हत्यिसीसे णयरे बहवे सजत्ता णावा वाणिगया परिवसति, अड्डा जाव घटुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था) उस काल और उस समय मे हस्तिशी नाम का नगर था। "द्ध" इत्यादि रूपसे पूर्व अध्ययनों में वर्णित पाठ की तरह इस नगर का वर्णन जानना चाहिये । उस नगर मे कनक केतु नामका राजा रहता था। इसका भी वर्णन " मया हिमवत " इत्यादिरूप से पहिले के अध्ययनोंमे वर्णित राजाओंके वर्णन जैसा ही जानना चाहिये। उस (सोलसमस्स णायज्झयणस्स अयमहे पण्णत्ते सत्तरमस्स ण भते ! णायज्झ यणस्स समणेण भगनया महावीरेण जान सपत्तेण के अट्टे पण्णत्ते ) સોળમા જ્ઞાતાધ્યયનને પૂર્વોત રૂપે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે ત્યારે સિદ્ધ ગતિ સ્થાન મેળવી ચૂકેલા તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સત્તરમાં જ્ઞાતા ધ્યાનને શે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે (एव सल जमू) मारी पूना प्रश्नने सालणीनतमन समन्तता અધમ સ્વામી કહેવા લાગ્યા કે હે જ બૂ! તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે – ( तेण कालेण तेण समएण हथिसीसे नयरे होत्या, वणो , तत्थण कण. गके ऊणाम राया होत्था, पण्णओ, तत्यण हत्यिसीसे णयरे हवे सजत्ता णावा वाणियगा परिचसति, अड्डा जाव बहुजणस्म अपरिभूया यावि होत्था) ते जाणे मन त समये अस्तिशी नामे ना२ तु “ ऋद्ध" पोरे રૂપમાં પહેલાના અધ્યયનમાં વર્ણન કરવામાં આવેલા પાઠની જેમ આ નગરના વર્ણન પણ જાણું લેવું જોઈએ તે નગરમાં કનકકે નામે રાજા રહેતે હવે
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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