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________________ - - - - ५५२ तामा प्रयुक्ता भुकुटि ललाटे उन्नीय प्रदर्य, एतमादीव-अहो-पाश्रय खलु 'पा' यदा-पस्मिन् समये, मया लवणसमुद्र 'दुवे जोयणसयमहमा वित्पिण्णं 'दियो जनशतसहस्रपिस्तीर्ण द्विलभयोजनपरिमित विस्तीर्ण जीवात्ता' व्यतिबन्यसमुल्लध्य, पद्मनाभ राजान ' हयमहिय-जार पडिसेहिता' इतमथित-यावत् लिय एव चयासी-अहोण जया मा लरणसमुददुवे जोयणसयसहस्सा विच्छिन्न वीइवहत्ता पउमणाम हयमहिय जार पडिसेहिसा अमरकका समग्ग० दोचई सारधि उवणीया तया ण तुम्भेहिं मम मारप ण वि. एणाय इयाणि जाणिस्सर, त्ति कटु लोहदड परामुसड, पचण्ह पर घाणं रहे चूरेइ, चूरित्ता णिन्धिसए आणवेड आणविसा तत्य ण रह मद्दणे णाम कोडूडे णिवेट्टे,तण्ण से कण्हे वासुदेवे जेणेव सा ग्वधावार, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सरण खधावारेण सद्धि अभिसमो गए यावि होत्या, से कण्हे वासुदेवे जेणेव यारवई णयरी तेणेव उवा गच्छइ, उपगच्छित्तो अणुपरिसइ) उन पाचो पाडवों के मुख से इस कथन रूप अर्थ को सुनकर और उसे अपने हृदय में अवधारित कर उन कृष्णवासुदेव को इकदम फ्रोध आ गया। त्रिवलियुक्त उनकी दोनों भृकुटिया स्लाटतट पर चढ गई। उसी समय उन्हों ने उन पाडवों से कहा यह बड़े आश्चर्य की यात है-जिस समय मैंने २ दो लाख योजन विस्तारवाले लवणसमुद्र को उल्लधन कर पद्मनाभ राजा को सग्राम में जीता-उस की सेना को हत मषित किया-राजचिन्तस्वरूप उसकी सयसहस्सा विछिन्न वीइवत्ता पउमणाम हय महिय जान पडिसेहिता अमर कका सभग्ग० दोबई साहत्थि उवणीया तयाण तुम्भेहिं मम माइप्प ण विणाय इयाणि जाणिस्सह, तिफटु लोहदद परामुसइ, पचण्ह पटवाण रहे चूरेइ, चारता णिधिसए आणवेइ आणवित्ता तत्यण रहमदणे णाम को णिवेटे, तएण से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खधावारे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सरण खधा वारेण सद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्था तरण से कहे वासुदेवे जेणेव वारवई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अणुपविसइ) તે પાચે પાડવોના મુખથી આ કથનરૂપ અર્થને સાભળીને અને તેને પિતાના હૃદયમાં અવધારિત કરીને તે કણવાસદેવ એકદમ કોધાવિષ્ટ થઈ ગયા વિલિયુક્ત તેમના બને ભમ્મર વક થઈ ગયા તેમ તે જ સમયે પાડવા આ પ્રમાણે કહ્યું કે આ ખરેખર નવાઈ જેવી વાત છે કે જ્યારે મે ૨ લાખ જન વિરતી લવ સમદને એક ગીત પદ્મનાભ રાજાને યુદ્ધમાં છર્યા, તેની સેનાને મથી નાખી, રાજચિત સ્વરૂપ તેની પ્રશસ્ત વજા પતાકાઓને
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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