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________________ अनगारधर्मामृतपिंगो टी० ५० १६ द्रौपदी चरितनिरूपणम् कृत्वा इत्युक्त्वा-पद्मनाभेन साधं योधु संप्रलग्नाचाप्यभवन् , तत खलु स पध नाभो राजा तान् पञ्च पाण्डवान क्षिममेर 'इयमहियपवरनिगडियचिन्धद्धयपड़ागा' इयमथितपवरनिपतितचितध्वजपताकान्-तत्र हया'-अश्या मथिता-पीडिताः, भवरा:-प्रशस्ताः, चिह्न-वजपताका निपातिता येपा तान् , शस्त्रास्त्रप्रहारजनित माप्तान इत्यर्थः, याद दिगो दिश-सर्वतः ‘पडिसेहेइ' प्रतिपेश्यनि-प्रतिनिवर्तयति स्मेत्यर्थः । ततः खलु ते पञ्च पाण्डवाः पद्मनाभेन राजा हयमथितप्रवरनिप तित यावत् प्रतिपेधिताः सन्तः ‘अत्यामा' अस्थामानः-चलरहिता, 'जाव अधारणिज्जा' अत्र यापच्छन्देन-'अबला अभीर्या' इत्यनयोः सग्रहः । अमला:नाम राजा ही नही" ऐसा कहकर वे पद्मनाभ राजा के साथ युद्ध करने में सलग्न हो गये। (तएणं से पउमनाभे राया ते पच पडवे खिप्पामेव यमहियपवर निवडिय जाव पडिसेहिया, समाणा, अत्यामा जाव अधारणिज्ज त्ति कट जेणे कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा०, तएण से वासुदेवे ते पच पडवे एवं चयामी करणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! पउमनाभेण रन्ना सद्धि सपलग्गा? तएण ते पच पडवा कण्ह वासुदेव एव वयासी-एव खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तुम्भेहिं अन्भणुन्नाया समाणा सनद्ध० रहे दुख्दामो २ जेणेव पउमणाभे जाय पडिसेरेइ ) तय पद्म नाभ राजा ने उन पांचो पाडवो को चतुत जरदी पीडित घोडों चाला एच निपातित प्रशस्त चिह्नध्वज पताका वाला कर दिया। यावत् एक दिशो से दूसरी दिशा में जाने से भी उन्हें रोक दिया अयवा-एक दिशा से दूसरी दिशा में ग्वदेड दिया। इस तरह वे पाचो पाडव पद्म नाम राजा के द्वारा पीडित घोडोवाले, एव निपातित प्रशस्त चिह्न ध्वज पताका वाले जर बन गये और एक दिशा से दूसरी दिशा में जाने से रोक दिये गये-अथवा खदेड़ दिये गये तब बलरहित बनकर यावत (तएण से पउमनाभे राया ते पच पडवे खिप्पामेव हयमहियपर निरडिय जाव पडिसेहिया समाणा, अत्थामा जान अधारणिज्ज ,ति क्हटु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेप उवा०, तएण से कण्हे वासुदेवे ते पच पडवे एव वयामी कहण्ण तुम्भे देवाणुप्पिया । पउमनाभेण रन्ना सद्धिं सपलग्गा ? तएण ते पचपडवा कण्ह वासुदेव एव यासी-एव खलु देवाणुप्पिया अम्हे तुम्भेहिं अभणुमाया समाणा सनद्व० रहे दुरूहामो २ जेणेव पउमणामे जाव पडिसेहेड ) ત્યારપછી પદ્મનાભ રાજાએ તે પાચે પડીને થોડા વખતમા જ પીડિત ઘોડાઓવાળા તેમજ નિપાતિત પ્રશસ્ત ચિઠવજ પતાકાવાળા બનાવી દીધા થાવત એક દિશામાથી બીજી દિશા તક્ જઈ શકે નહિ તેમ તેઓએ રસ્તો રોકી લીધે અથવા તે એક દિશામાથી બીજી દિશા તરફ ભગાડી મૂક્યા આવી
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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