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________________ ७t अह हे देशानुप्रिय । यत् व सिम्यशिपति तग 'सत्र आणाओवापश्य णणिदेसे 'आतापाताचन निर्देश स्थास्यागि, पानारिणी सर्विनी भति प्यामीत्यर्थ , आशा-अपश्य विधेयतया आदेश', उपायान सेनापन, निर्देश - कायाणि प्रति प्रश्नेकते यग्निपतातरम् , ममाहारमः तत्र, ततः खल स पद्मनामो राजा द्रौपना पतमय मतिश्रुत्यापीत्य द्रोपती देवी मण्यतेउरे' कन्यान्तः पुरे म्यापयति, ततः गल सा दोपदीदेवी ' मटेण' षष्टपष्टेन पष्ठभक्तानन्तर पुन: पप्ठमक्तेन, अनिश्चित्तेण' अनिक्षिप्तेन-पिरामरहितन अन्तारहितेनेत्यर्थः, 'पायरिलपरिगटिपण' आयरिलपरिग्रहीनेन तपः कर्मणा आत्मान भावयन्ती विहरति । सू०२६ ।। मूलम्-तएणं से जुहाढिल्ले रारातओ मुहत्तंतरस्त पडिबुद्ध समाणे दोबइ देवि पासे अपासमाणो सयणिजाओ उठेइ उहित्ता दोवईए देवीए सम्वओ समता मग्गणगवसण करेइ करिता दोवईए देवीए करथइ सुइ वा खुइ वा पत्ति वा अलभमाण जेणेव पडुराया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पडुरायं एवंवयासा एवं खल्लु ताओ । मम आगासतलगसि सुहपसुत्तस्त पासाआ लेने के लिये यहा जल्दी से नहीं आयेगे तो उसके बाद हे देवानुप्रिय. जैसा तुम कहोगे वैसा मैं करूंगी-तुम्हारी आज्ञा कारिणी वरावात घन जाऊँगी। ऐसा अर्थ "आणाओवायवयणणिसे" इन पदों का निकलता है। इसके बाद पद्मनाभ राजा ने द्रौपदी के इस कथन का स्वीकार करके उसे कन्या के अन्तः पुर में रखदिया। चहा वह द्राप देवी आयविल परिगृहीत छह छ? की अन्तर रहित तपस्या से अपने आप को भावित करती हुई रहने लगी। सू० २६ કરતા કરતા અહીં નહિ આવી શકે તે ત્યારપછી હે દેવાનુપ્રિય! તમે જેમ अशा तेम ४३रीश, भारी मारिए शतिनी मनी । “अणा ओवायवयणाणिदेसे" र पोथी . ! म नाणे छ त्या२५७। પદ્મનાભ રાજાએ દ્રૌપદીના તે કથનને સ્વીકારી લીધું અને તેને કયાના અઃ પુરમાં મૂકી દીધી ત્યા તે દ્રોપદી વી આ બિલ પરિગ્રહીત છ3 છઠ્ઠની અન્તર રહિત તપસ્યાથી પિતાની જાતને ભાવિત કરતી રહેવા લાગે છે
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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