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________________ अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदोधरितनिरूपणम् खलु त्व हे देनानुप्रिये ! अपहतमनःसरल्पा यावद् ध्याय, आत-यान मा कुरु व मया साधं विपुलान् मोगभोगान् यावद् भुताना विहर-मदीयप्रासादे तिष्ठ' इति । तत खलु सा द्रौपदी देवी पद्मनाभमेवमादी-एर सलु हे देवानुप्रिय । जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते द्वारवत्या नगयाँ कृष्णो नाम वासुदेवो मम मित्रभातक'= मममियस्य भर्तु ता परिवमति, तद् यदि खलु म पण्णा मामाना मध्ये 'मम' मा 'कू' देशीशब्दोऽयम् , अन्वेषयितु ग्रहीन वा नो शीघ्रमागच्छति-तत खलु गई तो। इमलिये हे देवानुप्रिये ! तुम आपत्तमनासकरप बनकर यावत् आर्तध्यान मत करो। टुल तो अब मेरे साथ विपुल कान मोगों को भोगती हुई मेरे प्रासाद में रहो। (तएण सा दोबई देवी पउमणाम रव चयासी-एव खल देवाणुप्पिया जंजूदीवे दीवे मारहे वासे वारवइए णयरीए कण्हे णाम वासुदेवे ममप्पियभाउरा परिवमइ, त जहण से छण्ड मासाण मम कूव णो व मागच्छड तणं अह देवाणुप्पिया! ज तुम वदसि तस्स आणाओवायरयणणिदेसे चिट्टिस्सामि तएण से पउमे दोवईए एयमह पडिसुणे २ दोवड देवी कण्णतेउरे ठवेइ, तएण सा दोवई देवी छह उष्टेण अणिनिखत्तेण आयबिलपरिग्गहिएण तवोकम्मेण अप्पाण भावेमाणे विहरह) इसके बाद उस द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! सुनो-जबूद्वीप नाम के द्वीप में भारतवर्पमें बारावती नगरी में कृष्ण वासुदेव मेरे प्रिय पति के भ्राता रहते है। वे यदि छह मासके भीतर मुझे अन्वेषण करने के लिये या આવી છે એવી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે અપહતમન સકલ્પ થઈને યાવત આર્તધ્યાન ન કરે તમે મનુષ્યભવ સબ ધી કામ લે ગે ભોગતા મારા મહેલમાં રહે (तएण सा दोबई देवी पउमणाभ एन वयासी एव खलु देवाणुप्पिया! जब होवे दीवे, भारहे वासे पारवइए णयरीए कण्णे णाम वासुदेवे मम पियभाउए परिवसइ, त जइण से छह मामाण मम कूच णो हद मागच्छइ, तएण अह देवाणुप्पिया ! ज तुम वदसि तस्स आणाओवायवयणणिसे चिटिस्लामि तएण से पउमे दोपईए एयमह पडिमुणित्ता २ दोवई देवीं कण्णतेउरे ठवेद, तएण सा दोरई देनी छ? छटेण अणिक्खित्तेणं आयविलपरिग्गहिएण तवोकम्मेण अप्पाण भावे माणे विहरइ) ત્યારપછી દ્રૌપદી દેવીએ પનાભને આ પ્રમાણે કહ્યું કે દેવાનુપ્રિયા સાભળે, જ બદ્વીપ નામના દ્વીપમાં ભારત વર્ષમાં દ્વારાવતી નગરીમાં કરણ વાસુદેવ મારા પ્રિય પતિના ભાઈ રહે છે તેઓ છ મહીનાની આ દર મારી તપાસ
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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