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________________ पालका माण आज्ञाया आराधको भाति । एतस्य धर्मस्याराधक पयामाया आराधक इत्युक्त्वाऽऽय धर्मस्य प्रकाशकतया मूलमिति योधितम् । तदनन्तर च मगरता__ "अगारधम्म दुवालसरिह आइनखः । त जहा-पर अणुचयाउ, तिष्णिगुणव्ययाइ चत्तारि सिक्खापयाइ" इत्यादिना द्वादशविध धर्म निरूप्य कथितम् । 'अयमाउमो अगारसामइए धम्मे पण्गत्ते ' पयस धम्मस्स सिरसाए उव हिए समणोवासए वा समणोपामिया या पिहरमाणे आणाए आराइए भवड" इति । धर्म कहा गया है-अर्थात् मुनियों का यह धर्म का गया है। इस धर्म की शिक्षा में जो उपस्थित होता है अर्थात् जो इस धर्म कीआराधना करते है- चाहे वे साधु हरों चाहे सांघी हों कोड भी हो ये जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा के आराधक होते हैं । इस धर्म की आरा धना करनेवाला जीव ही जिनेन्द्र की आज्ञा का आराधक माना गया हे इस कथन से "जिस बात में भगवान की आज्ञा हो वही धर्म का मूल है अन्य आज्ञा विरुद्ध प्रवृत्ति है " यह यात समझाई गई है इस के घाद भगवान ने " अगारधम्म दुवालमविह आइरखह त जरा-पच अणुव्चयाइ, तिण्णिगुणव्वयाह चत्तारि सिक्खावयाइ" इस सूत्र से यह प्रकट किया है कि गृहस्थ का धर्म १२ प्रकार का है ५ अणुवत, ३ गुण व्रत और ४ शिक्षाप्रत । इस प्रकार से कथन कर " अयमाउसो अगार सामइए धम्मे पण्णत्ते एयरस घमस्स सिक्खाए, उवहिए, समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भव" इति-हे આ અનગાર સામાયિક મુનિને સિદ્ધાન્ત વિષયક ધર્મ કહેવામાં આવે છે એટલે કે આ મુનિઓને ધર્મ કહેવામાં આવ્યો છે આ ધર્મની શિક્ષામાં જે ઉપસ્થિત હેય છે એટલે કે આ ધર્મની આરાધના કરે છે–ભલે તેઓ સાધુ હોય કે સાધ્વીઓ ગમે તે કેમ ન હોય તેઓ જીનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક હોય છે આ ધર્મની આરાધના કરનારા જીવ જ જીનેન્દ્રના આરા ધક ગણાય છે. આ કથનથી એ વાત સમજાવવામાં આવી છે કે જે વાતમાં ભગવાનની આજ્ઞા હોય તે જ ધર્મ છે, આજ્ઞા વિરૂદ્ધ બીજુ આચરણ અધર્મ छे त्यारपछी मगवान डे " अगारधम्म दुवालसविह आइक्खइ त जहा पच अणुव्वयाइ,तिणि गुणत्रयाइ चत्तारि सिक्खावयाइ" या सूत्र दास से पट કરવામા આવ્યુ છે કે ગૃહસ્થને ધમ ૧૨ પ્રકાર છે-પ અણુવત, ૩ ગુણનત भने ४ शिक्षाबत साशते " अयमाउसो अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते एयरस धम्मस्स सिक्खाए उपढ़िए, समणोवासए वा समणोवामिया वा माणे
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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