SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ %3 ___नारामृतदिनोटी०४० १६ घमरच्यनगारचरितवर्णनम् १७७ विद्धा दाव्युत्क्रान्स्या द्वितीयवारमपि अधः सप्तम्या पृथिव्यामुत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सा. गरोपमस्थितिकेपु नैरयिकेपूपपद्यते, सा खलु ' तओहितो' तस्याः सप्तम्या: पृथिव्याः, यावद् उद्वर्त्य ' तच्चपि' तृतीयवारमपि मत्स्येषु उत्पन्ना । तत्रापि च सलु शस्त्रविद्धा 'जाव काल किन्चा' यापत् दाहव्युत्क्रान्त्या कालमासे काल कृत्या द्वितीयवारमपि पप्ठ्या पृथिव्यामुत्कृष्टतो द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु नरके पुत्पन्ना, सा सलु तत =पप्ठयाः पृथिव्या अनन्तर ' उवहिता' उद्वर्त्य - निस्सृत्य उर:परिसर्पपृत्पन्नाः, तत्र शवन्या दाहव्युत्क्रान्त्यामुत्कृष्टतः सप्तदशसागरोपमस्थितिकेपृत्पन्ना । एव यथा गोशरलकस्तथा ज्ञातव्यम्-गोशालकनदस्याज्जई) तिर्यश्चगति में मच्छ की पर्याय से उत्पन्न हो गई । वहां वह मत्स्य के भव में शस्त्र से विदा होकर दाह की उत्पत्ति से काल अवसर काल कर मरी सो नीचे सप्तम नरक में ३३ तेतीस सागर की उत्कृष्ट स्थितिवाले नरकावास में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां से निकलकर फिर वह मत्स्य की पर्याय से उत्पन्न हुई। (तत्व वि य णं सत्यविज्झादारवक्कतीरा दोच्चपि अहे सत्तमीए पु०) वहां वह शस्त्र से पुनः विद्ध होकर दाहकी व्युत्क्रान्ति से मरी और मरकर वित्तीयवार भी सप्तम नरक में ( उक्कोम तेतीससागरोवमट्टिइण्सु नेग्इए उवव ज्जइ ) उत्कृष्ट-तेतीस सागर की स्थिति लेकर नैरयिक की पर्याय में उत्पन्न हुई। (सा ण तओ हिं तो जाव उववद्वित्ता तच्चपि मच्छेसु उव. पना, तत्थ वि य णं सत्वज्झा जाव कालं किच्चा दोच्चपि उट्टीए पुढघोरा उक्कोसे ण तओऽणतर उवहित्ता मच्छेसु उरएसु एव जहा गोसाले તિ ચ ગતિમા મરછથી પર્યાયની જન્મ પામી ત્યા તે મત્સ્યના ભાવમાં શસ્ત્ર વડે વી ધાઈને દાહથી પીડાઈને કાળ અવસરે કાળ કરીને મરણ પામી અને નીચે સાતમા નરકમાં ૩૩ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ નિથતિવાળા નરકાવાસમાં નૈરયિકની પર્યાયથી જન્મ પામી ત્યાથી નીકળીને ફરી તે મત્સ્યના પર્યાયથી જન્મ પામી (तस्थ वि य ण सत्थविज्झा दाहवक्कतीए दोच्चपि अहे सत्तमीए पु०) ત્યા તે ફરી શસ્ત્ર વડે વિદ્ધ થઈને દાહથી પીડાઈને મરી અને મારીને बी० मत पशु सतमा न२४मा ( उक्कोस तेतीमसागरोवमद्विइएसु नेरइए उव. पज्जइ) ४ 33 सागरनी स्थिति बन ने.विनी पर्यायमा भ पाभी (सा ण तोहिं तो जार उव्यद्वित्ता तच्चपि मच्छेसु उपवना, तत्व विय गं संस्थवज्झा जाय काल रिच्चा दोन्चपि छडीए पुढनीए उक्कोसेण तमोऽणंवर
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy