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________________ बताया रनगारो यधापर्यासमितिकृत्वा धानित पूर्णमिति मका यावत्-कालम् 'अत्रणरुखेमाणे' अननकाट्नमाणः विहरति, स पलु धर्मरुचिरनगागे पनि वर्षाणि अमण्यपर्याय पालपित्ता, आलोचित मतिका तः समाधिप्राप्तः कालमासे काल कृला जाई ' सोहम्म जाव सबसिदे' सौधर्मादयो द्वादशदेश्लोकाः, वत उधं नवयकानि तदुपरि यानत् सर्वार्थसिद्ध, महायिमाने देवत्वेनोपपम-देवमय प्राप्तान् । तन-तस्मिन् सर्भिसिरिमाने, सल 'मनागमणुफोसेण' अजरन्यानुत्कृष्टेन जघन्योत्कृष्टनितेन तत्र हि सपा देवानां स्थितिः समानेव भवति न तु न्यूनाधिककालनया रिपमेतिमाः। त्रपत्रिशन सागरोपमानि स्थितिः ममता, वन धर्मरुचेरपि देवस्य त्रयस्त्रिंशत् सागरीपमानि स्थितिः प्राप्ता, स स धर्मरुचि देवस्तस्माद् देवलोका-सार्थसिद्धरिमानाद् यावद् च्युत सन् यापद महाविदा वर्षे सिज्झिहिद' सेत्स्यति, सिद्धि प्राप्स्यति । तत्=तस्माद् दिगस्तु खलु । पहुंचे। यावत् उसने शारदिक तिक्त फटवे तुवे की शाक उनके पात्र में बोहराया धनरुचि अनगार ने उसको सुगानिवृत्ति के लिए पर्याप्ति मान कर लिया। उन धर्मरूचि अनगारने अनेक वर्षों तक श्रमण्य पर्याय का पालन किया और पालन करके आलोचित प्रतिकान्त होकर वे समाधि में लीन हो गये। काल अवसर काल करके अब वे सोवन आदि १२ देवलोको से ऊपर नववेय को से मी आगे जो सर्वार्थसिद्वि नाम का विधान है कि जिसमें ३३ सागर की स्थिति है-और यह स्थिति जहा सय देवा की सनान हैं उसमें ३३ सागर की स्थितिवाले देव हुए हैं। " अजहण्णमणुझोसेग" जध न्य और उत्कृट तेत्रीस सागरोपम की स्थिति है। ( से ण धम्मा देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे-वासे सिजिझदिह, त घिरत्यु કડવી ખૂબડીનુ શાક તેમના પાત્રમાં વહેરાવ્ય ધર્મરુચિ અનગારે તેને ક્ષધા નિવૃત્તિ માટે પપ્ત જાણીને તેને સ્વીકારી લીધુ તે ધર્મચિ અનગારે ઘણું વર્ષો સુધી શ્રાપથ પર્યાયનું પાલન કર્યું છે અને, પાલન કરીને આચિત પ્રતિકાત થીને તેઓ સમાધિમાં લીન થ5 ગયા છે કાળ સમયે કાળ કરીને હવે તેઓ સૌધર્મ વગેરે બાર દેવલેકેથો ઉપર ન શ્રેયકથી પણ આગળ જે સર્વાર્થસિદ્ધિ નામે વિમાન છે કે જેમાં ૩૩ સાગરની સ્થિતિ છે અને આ સ્થિતિ જવા બધા દેવોની સરખી છે, તેઓ તેમાં ૩૩ सागरनी स्थितिमा १ था छ "अजहण्णमणुकासेण" ruन्य मन जट 33 सागरोपभनी स्थिति छ । ( सेण धम्मरूई देवे ताभो देवलोगाभो नाव महाविदहे-चासे सिझिदिन,
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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