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________________ अनगारधर्मामृतयपिणी टी० म०.६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् आस्वादयति, नस्वाय तत् क्षार कटुफमस्सायमभोज्य विपभूत ज्ञाता एवमवादीतू-- धिगस्तु मा नागश्रियमपन्यामपुण्या दुर्भगा 'दुभासत्ताए' दुर्भगसत्ला दुर्भग-निष्फल सत्त्व-घल यस्याः सा ता व्यर्थपरिश्रमामिन्यर्थः 'दृमगणिनोलिए' दुर्भगनिम्बगुलिका निम्पफलिका, तद्वद् दुर्भगा ता-जनैरनादरणीयामित्यर्ध, जन द्वितीयार्थे पष्ठी प्राकृतत्वात् , 'जीए' यया खलु मया शारदिक बहुसभारद्रव्यसभृत स्नेहाव(ज्वस्खटित्ता एग बिंदुय करयलसि आसाएड) जब वह तैयार शाक हो चुका-तब उसने उसमें से एक मिन्दु मात्र शाक अपनी हथेली पर रखा और फिर उसे चखा-(आसाइत्ता त खोर कडय अक्खज्ज अभोजः विसन्भूय जाणित्ता एव वयासी-धिरत्यु ण मम नागसिरीए अहनाए, अपुनाए दुर भगाए दुभगसत्तारादुभगणियोलियाए जीएण मए सालइए' घनसभारसमिए नेहावगाढे उवरखडिए) चखकर उसे ज्ञात हुआ कि यह शाक तो बन पारा है, बहुत अधिक कडुआ है। खाने के योग्य नही है भोजन में लेने के लायक नहीं है, यह तो विष जैसा है ऐसा जानकर उसने मन ही मन विचार किया उस विचार मे उसने कहा-मुश नागश्री को धिक्कार है, मे अधन्या और अपुपया है। जनों के द्वारा ओदर पाने योग्य नहीं हूँ। मेरे इम बल को पार २ धिक्कार हो-मेरा यह पल बिलकुल निष्फल है मैने जो इस शाक के बनाने में इतना उद्यम किया है वह मेरा सर्वथा निष्फल गया। जिस प्रकार नीमः ७५२ घी तरतु तु (अस्सडिता एग पिदुय करयल सि आसाएइ) न्यारे શાક તૈયાર થઈ ગયું ત્યારે તેણે તેમાથી ફક્ત એક ટીપા જેટલું શાક પિતાની હથેળી ઉપર લઈને ચાખ્યું (आसाइत्ता त खारं कड्डय अखज्ज अभोग्न विसम्भूय जाणित्ता एव वयासी-धिरत्यु ण मम नागसिरीए अहन्नाए, अपुनाए, दूरभगाए' भगसत्ताए भगणिवोलियाए जीएण मए सालइए बहुसभारसभिए नेहावगाढे उपक्खडिए) ચાખવાથી તેને લાગ્યું કે આ શાક તે ખૂબ જ ખારૂ છે, ખૂબ જ કડવું: છે, ખાવાલાયક નથી, ભજનમાં કામ લાગે તેવું નથી, આ તે ઝેર જેવું છેઆમ જાણીને તેણે પિતાના મનમાં જ વિચાર કર્યો અને વિચાર કરતા તેણે પિતાની જાતને જ આ પ્રમાણે કહ્યું કે-અને-નાગશ્રીને-ધિક્કાર છે, હું ખરેખર અધન્યા તેમજ અપુયા છુ હું લોકે દ્વારા આદર મેળવવા લાયક નથી મારા આ બળને વારવાર ધિક્કાર છે, મારૂ આ બળ સાવ નકામુ છે શાક તૈયાર - . . મે શ્રમ કર્યો છે તે બધ નકામો ગયો જેમ લીમ
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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