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________________ $4 ज्ञातार्थमेकचा सकलजी जीवताऽपि जातः । ततः खलु तेतलिपुत्रः केवली बहूनि वर्षाणि केवलपर्याय पालयित्वा यावत् सिद्ध =मोक्ष गन सुधर्मास्वामी माह एवं खलु हे जम्मूः । श्रमणेन भगवता महारीरेण चतुर्दशस्य ज्ञाताध्ययनस्य 'अयमद्वे' अयमर्थः पूर्वोक्तो भार माप्त =प्रपित, 'त्ति बेमि' इवि ब्रवीमि = भगवत्समीपे यथा श्रुत तथा त्वा प्रतिकथयामि । एतेन अध्ययनेन इदमायात यत् प्राणिनो यावद् दु खं मानभ्रश च न मानुनन्वि ताप बहुश प्रचोधिता अपि धर्मे न स्त्रीकुर्वन्ति, यथा तेतलिपुनः ॥ ०१३ ॥ इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-मसिद्धचकपञ्चदशभापाकलित कलितकलापालापक-मविशुद्धगयपद्यनेकग्रन्यनिर्मापक-पादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छ त्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराज गुरु-पालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिनाकर पूज्यश्री-घासीलाछविविरचिताया ' ज्ञाताधर्मकथा ' सूनस्यानगारधर्मामृतव पिंण्याख्याया व्याख्यायां चतुर्दशमभ्ययन सपूर्णम् ||१४|| पर्याय का पालन कर यावत् सिद्ध पद प्राप्त कर लिया। सुधर्मास्वामी करते हैं - हे जबू ! श्रमण भगवान महावीर ने इस चौदहवे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से भाव अर्थ प्ररूपित किया है । सो जैसा मैंने उन भगवान के समीप में सुना है यह वैसा ही तुमसे कहा है । इम अध्य धन से हमें यह ज्ञान हो जाता है कि समार में तेतलिपुत्र की तरह ऐसे भी प्राणी हैं कि वे जब तक दुख और अपमान को नहीं पालते हैं तब तक अनेक बार प्रतियोगित करने पर भी धर्म को स्वीकार नहीं करते हैं । सू० १३ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथाङ्गमूत्र " की अनगारधर्मामृनर्वार्षिणी व्याख्याका चौदवा अध्ययन समाप्त ॥ १४ ॥ મેળવી લીધુ સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે હું જ ભૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ ચૌદમા જ્ઞાતાધ્યયના પૂર્વોક્ત રૂપથી ભાવ-અનિરૂપિન કર્યાં છે જેવા અથ મૈં તેઓશ્રી પાસેથી સાભ્રત્યેા છે તેવાજ તમને કહ્યો છે. આ અયનથી અમને આ જાતનું જ્ઞાન થાય છે કે સ સરમા તેતલિપુત્રની જેમ એવા પણ પ્રાણી આ છે કે તેઓ જયા સુધી દુખી અને અપમાનિત થતા નથી ત્યા સુધી ઘણા વખત પ્રતિમાષિત કરવા છતા ધમ ને સ્વીકારતા નથી ।। સૂત્ર ૧૩૦ || મી જૈનાચાય ઘાસીવાલજી મહારાજ કૃતજ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મોંમૃતવર્ષિણી व्याभ्यानु यौधभु अध्ययन समाप्त ॥ १४ ॥
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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