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________________ अगर टीका ० १ तेलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम् ८३ ་ तष्टिपुत्रे दुचिन्तको जात' इतिदेतो:, तेनलिपुत्रेण तालपुटक निपम् 'आसगसि ' आस्ये = मुखे प्रक्षिप्तम्, ' से विय' तदपि च विष नो 'कमड न क्राम्यति त्रिपस्वेन न परिणमति को जन ' मेद ' मपेट मत्यमपि वचन श्रद्धास्यति न कोऽपि, तथा ' तेतचित्ते ' नीलुप्पल जान खरसि ओहरिए ' तेतलिपुत्रेण नीलोत्पल यावत् स्कन्धे अपहतः = तेतलिपुत्रेण नीलोत्पलगवलगुलिकममप्रभाऽसि 'स्कन्धे कण्ठमूले ' अवहृत ' प्रहृतः ' तत्वनि ' तत्रापि तस्मिन् मरणोपाये कृतेऽपि च ' तस्य असेः धारा ओपल्ला=कुण्ठीभूता को 'मेद ममेद श्रद्धास्यति । एवमेव यह ब्रूयाम् यन्मया ' तेतलिपुत्रेण पामर्ग गीवाए नत्ता जाव रज्जू छिना को मे सदस्सितपुत्रेण पाशक ग्रीवाना वा यात् रज्जु उन्ना, को ममेद श्रद्वास्यति ? तपुत्रेण अतिविशाला गिला यावद् वद् वा अस्ताधयात्रवज राजा दुश्चित बन गये इसलिये मने तालपुट विष मुख में डाल दिया परन्तु वह विषरूप से परिणमित नहीं हुआ । मेने विप खाया - पर मैं मरा नही - कौन मनुष्य मेरी इस सत्य बात को श्रद्धा की दृष्टी से देखेगा । तथा मैंने नीलोत्पल, गवल एव गुलिका की प्रभा 'जैसी प्रभाव चाली तीक्ष्ण तलवार अपनी गर्दन पर मरने के लिये चलाई परन्तु वह भोटी घरवाली बन गई - कुण्ठित हो गई उससे मेरी गर्दन नही फटीकौन मेरी इस बात को मानने के लिये तैयार हो सकेगा ( तेतलिपुत्तेणं पास इत्यादि) उसी तरह यदि मे यह कह कि मुझ तेतलिपुत्रने अपने गले में पाशक डाला और वृक्षपर चढकर वहा से नीचे में लटक पड़ा और फदा बीच में से टट गया तो कौन इन वचनो पर विश्वास करेगा। (तलिपुत्ते महहमाल्य जाव यधित्ता अवाह जाव उद्गसि अप्पा મે તાલપુ વિષ ( ઝેર ) ખાધુ હતુ પણ તે વિષના રૂપમા પરિણત થયુ નથી એટલે કે વિષ ભક્ષણ કરવા છતાએ હુ મરણ પામ્યા નહિ આ વાત ઉપર કા માણસ વિશ્વાસ મૂકવા તૈયાર થશે ? તેન્જ નીલેત્પલ, ગવલ અને જુલિકાના જેવી પ્રભાવાળી તીક્ષ્ણ ધાવાળી તવારના મે મરવા માટે મારી ડાક ઉપર ઘા કર્યો પણ તે તરવાર જ મૂડી ધારવાળી થઈ ગઈ-મુક્તિ થઈ ગઈ તેનાથી મારી ડાક કપાઈ નહિ મારી આ વાત ઉપર ાણુ વિશ્વામ કરવા તૈયાર થશે ? ( वेतपुित्ते पासग इत्यादि ) मा रोते हु आम उडु } भे तेतनिपुत्रे પેાતાના ગળામા ગામા નાખ્યા અને વૃક્ષ ઉપર ચઢો વૃક્ષ ઉપર ચઢીને ત્યાથી નીચે લટકી પડો પણ ક્ાસે વચ્ચેી જ તૂટી ગયે તે કાણુ મારી આ વાત ઉપર વિશ્વાસ મૃકશે ? ( तेवलित्तेण महइमहालय जाव वधित्ता अत्याह जाव उदगसि अप्पा मुके,
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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