SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1097
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनगारधर्मामृतषिणी टी० भु २ घ १४ १ कालीदेवीवर्णनम् ७६९ खलु अमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्धिगतिनामधेय स्थान समाप्तुकामाय, वन्दे खलु भगवन्त 'तत्यगय ' तनात-जम्बूद्वीपे राजगृहनगरस्य गुणशिलको घाने समरसृतम् 'इहगा' इहगता-चमरचञ्चाराजधानी स्थिताऽहम् , पश्यतु मा भगवान् तरगत इहगतम् , 'त्ति कटु' इति कृत्वो-इत्युक्त्वा वन्दते नमस्यति, पन्दित्वा नमस्यित्वा सिंहासनारे 'पुरत्याभिमुही ' पोरस्त्याभिमुग्वी पूर्वदिशाभि मुखी 'निमष्णा' निपग्गा उपविष्टा । ततः खलु तस्या काल्या देव्या अयमेतजाय मपाचिउकामस्स वदामि ण भगवत तत्थ गय इह गया पासड म भगव तत्व गए इ₹ गय त्तिकटु वदइ नममइ, वदित्ता नमसित्ता सीहामणवरसि पुरत्याभिमुही निसण्णा तरण तीसे कालीए देवीए इमेयाख्वे जाव समुपज्जित्था) यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अहंत भगवतो के लिये मेरा नमस्कार हो । सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने की कामनावाले श्रमण भगवान महावीर को मै नमस्कार करती है। जद्वीप में राजगृह नगर के गुणशिलक उद्यान में इस समय विराजमान उन भगवान को मै इस चमर चपा नाम की राजधानी में रही हुई नमस्कार कर रही हैं। वहा पर रहे हुए वे प्रभु मुझे यहा पर रही हुई देखे। इस प्रकार कहकर उसने उनको वदना की -नमस्कार कियो-वदना नमस्कार करके फिर वह अपने उत्तम सिंहरासन पर आकर पूर्व दिशाकी ओर मुंह करके बैठ गई। इसके बाद उस काली देवी के यह इस प्रकार का यावत् मनः सकल्प उत्पन्न हुआ(सेय खलु मे समण भगव महावीर वदित्ता जाव पज्जुवासित्तए त्ति तत्य गए इह गय त्ति यदइ नममइ, दित्ता, नमसित्ता सीहामणवरसि पुरत्याभिमुही निसण्या-तएण तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जारि समुप्पज्जित्था) યાવત્ સિદ્ધગનિ નામક સ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલા અહંત ભગવ તેને મારા નમસ્કાર છે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવવાની કામનાવાળા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને હું નમાર કરૂ છુ જ બૂ દ્વીપના રાજગૃષ્ઠ નગરના ગુણશિલક ઉધાનમાં અત્યારે વિરાજમાન તે ભગવાનને હુ આ ચમરચ ચા નામની રાજ ધાનીમાં રહેતી નમસ્કાર કરી રહી છુ ત્યા વિરાજમાન તે પ્રભુ અહીં રહેતી મને જુએ આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેમને વદન કર્યા અને નમસ્કાર કર્યા વદન અને નમસ્કાર કરીને તે પિતાના ઉત્તમ સિંહાસન ઉપર આવીને પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને બેસી ગઈ ત્યારપછી તે કાળી દેવીને આ જાતને થાવત્ મન સકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy