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________________ माताधर्मकथा मम वाहुच्छाया परिगृहीता याहुच्छायां समाश्रित सन् 'भुजाहि' मुख, भासेवस्व पुन पुनर्विषयाचादरखेन विहरन गृहे तिप्ठेत्यर्थः । केवल तब देवा प्रियरयाह नो श्वनोमि वायफायमुपरितो परत निवारयितम , वायुग्पर्शष्यतिरेकेण प्रतिकूलतया तव शरीरस्य स्पर्शने कोऽपि समर्थी नास्तीति भाव ।अन्य' खलु देवानुप्रियस्य यत् किंचिदपि आवाधी वा ईपत् पीडा वा व्यावायां वा विशेपपीडा वा उत्पादयति, तत्सर्व निवारयिष्यामीत्यर्थः । मम राज्ये तन किमपि दुख नो भविष्यति, साहाय्य ते परिप्यामि, अल परमकप्टसाध्येन दीक्षा ग्रहणेनेति भाव ॥ मू-१२॥ (-भुजाहि ण देवाणुप्पिया! विउले माणुस्सए कामभोग मम पाहुन्छाया परिग्गरिए) हे देवानप्रिय । मेरी चारच्छाया में रहते हुए तुम तो विपुल मनुष्य भव सम्बन्धी काम भोगो को भोगो। ( केवल देवाणुप्पि. यस्स अह णो सचाएमि वायुकाय उवरिमेण गच्छमाण निवारित्त) हे देवानुप्रिय ! प्रतिकल होकर तुम्हारे शरीर को मेरी छत्रच्छाया में रहते हुए कोई स्पर्श तक भी नहीं कर सकता है परन्तु वायुकाय को तुम्हारे ऊपर से जाते हए मुझ में रोकने की शक्ति नहीं है। अर्थात् वायु के सिवाय और किमी प्राणी में ऐसी शक्ति नहीं है जो मेरी छम्रच्छाया में रहे हुए तुम्हें विरुद्ध वन कर स्पर्श तक भी कर सके । ( अण्णे ण देवाणुप्पियस्स जे किंचि वि आवाह वा वाबाह वा उप्पाति त सच्च निवारेमि) वायकाय के सिवाय यदि कोई दूसरी व्यक्ति देवानुप्रिय तुम्हारे लिये थोड़ी सी भी किसी भी प्रकार की पीडा या विशेष पीड़ा उत्पन्न करेगा तो वह सब में निवारित करता रहूगा । विउले माणुस्सए कामभोए मम बाहुच्छाया परिमाहिए) ३ वानुप्रिय ! भाश माहुरछाया मा २डता तमे मनुष्यसपना पुरण आम लोग लोगवा ( केवल देवाणुप्पियस्स अह णो सचाएमि वायुकाय उवरिमेण गच्छमाण निवारित्तए) હે દેવાનુપ્રિય ! મારી છત્ર છાયામાં રહેતા તમને પ્રતિકૂળ થઈને કઈ સ્પર્શવાની પણ હિમ્મત કરશે નહિ ફક્ત વાયુકાય કે જે તમારી ઉપર થઈને પસાર થાય છે–રેકવાની તાકાત મારામાં નથી એટલે કે પવન સિવાય બીજા કઈ પણ પ્રાણી ની એવી હિમ્મત નથી કે મારી છત્ર છાયામાં રહેતા, પ્રતિ पुण यन तभारे। स्पश पण शश? (अण्णे ण देवाणुप्पियस्म जे किं चि विआवाह वावावाह वा उप्पाएति त सव्व निवारेमि) वायुयना सिपाय लील વ્યક્તિ તમને થોડી કે વધારે પીડા આપશે તે તેને હું મટાડીશ મારા
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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