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________________ अनगारधर्मामृतापणी टी० अ० १० जीवाना वृद्धिहानिनिरूपणम् टीका-यदि खलु भदन्त ! अमणेन भगवता महागीरेण नवमस्य ज्ञाताध्ययनस्यायम् पूर्वोक्तमकारः अर्थ. भाव. प्रज्ञप्त' कथित , स मया श्रुतः, फिन्तु दशमस्य ज्ञाता ययनस्य कोऽर्थः-को भाव ? प्राप्त ? । सुपरिनामी पाह-एव खलु हे जम्मू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे नगरे 'सामी ' स्वामी श्रीमहावीरस्वामी समोमढे समरसृत समागतः, तदा गोतमम्बामी एनमवादीवकथ खलु-केन प्रकारेण हे भदन्त ! जोवा 'बति ना' बर्द्धन्ते वृद्धिमाप्नु वन्ति वा, ' हाय तिवा' हीयन्ते दानि प्रानुगति वा ' जीवा द्रव्यतोऽनन्तत्वेन, प्रदेशतश्चापि प्रत्येस्मसङ्ख्यात प्रदेशत्वेनानस्थितपरिमाणत्वाद् द्विहानी प्राप्त नाईन्ति, किन्तु क्षान्त्यादिगुणाना वृद्धया पद्धन्ते, हान्या तु हीयन्त इति । 'जयण भते ! समणेण ' इत्यादि । दीकार्य-(जइण भते) यदि हे भदत । (समणेण० णवमरस णायमायणस्स अयम?) अमण भगवान् महावीर ने नवम ज्ञाताध्ययन का पूर्वोक्त रूप से यह अर्थ प्ररूपित किया है तो (दसमस्न के अटे). ? दशवं ज्ञाताध्ययन का उन्हों ने क्या भाव अर्थ कहा है ? इम प्रकार जवू स्वामी के प्रश्न को सुनकर श्री सुधर्मास्वामी उन्हें समझाने के अभिप्राय से कहते है कि ( एव खलु जबू! ) हे जत्रू सुनों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-(तेण कालेण तेण समएण रायगिहे नयरे सामी समोसढे-गोयमसामी एव वयासी) उस काल मे और उस समय में राजगृह नाम के नगर मे श्री भगवान महावीर स्वामी पधारे उस समय गौतम स्वामी ने उन से ऐसा पूछा ( कहाण भते ! जीवा वड्मृति, वा हायति वा ? गो० से जहा नाम यहुलपश्खस्स पाडिवया "जइण मते । समणेण " इत्यादि। टी -(जइण भते 1) ने महन1 (समणेण० वमस्स णायज्मयणास अयमढे) श्रम समान भावा३ नवमा साताध्ययननी पूर्वात ३पे पथ ३पित ध्या छ तो (समस के अटे १) शमा ज्ञातायनन तेसोस । ભાવ અર્થ નિરૂપિત કર્યો છેઆ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને શ્રી સુધર્માસ્વામાં તેમને બધી વાતની સ્પષ્ટતા કરવાના હેતુથી કહે છે કે (एव सलु जत) १ प्यू मामले। तभा प्रश्न ४ मा प्रभारी (तेण कालेण तेण समएण रायगिहे नयरे सामी समोसढे गोरमसामी एप पयासी) તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગરમાં શ્રી ભગવાન મહાવીર સ્વામીની પધરામણી થઈ તે સમયે ગૌતમ સ્વામીએ તેમને પ્રશ્ન કર્યો – (कहण भते । जीवा वति, वा हायविवा ? गो० से जहानामए पहल.
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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