SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 805
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८१ अनगारधर्मामृतपंणी ठी० अ० ९ माकन्दियदारकच रितनिरूपणम् परस्परस्य ' गत्ताइ' गात्राणि भङ्गोपाङ्गानि अभ्यञ्जयतः मर्दयतः, तदनु पुष्करिणी=नापीं अवगाहेते = अतः प्रविशत, अवगाह्य जलमज्जन = स्नान कुरुन', क्रत्वा यावत् प्रत्युत्तरतः नापीतो वहिर्निस्टतौ प्रत्युत्तीर्य - पहिर्निस्सृत्य पृथिवीशिलापट्टे निपीतः = उपविष्टौ निपद्य ' आसत्या' आस्वस्थ = ईपत्स्यस्थौ ' बीसत्या ' विस्वस्थ रमणीय निर्भयस्थान मत्वा विशेषेग विश्राम प्राप्तौ सुखासनवरगत=सुग्वदासने समुपविष्टो सन्तौ चम्पानगरम् अम्बापित्रा पृच्छनम् = समुद्रोत्तरण विषये तनिषेधेऽपि द्वित्रिवार तदाज्ञायाचनच, लग्णसमुद्रोत्तार च कालिकावातसमुत्थान की - तलश करने पर वे भी उन्हें मिल गये। मिलते ही उन्होने उन्हें फोडा - फोड कर उनमें से तेल निकाला - तेलनिकाल कर परस्पर में उन्हेंने एक दूसरे के शरीर पर उससे मर्दन कीया मर्दन करने के बाद फिरवे पुष्करिणी में प्रविष्ट हुए प्रविष्ट होकर उसमें उन्हों ने स्नान किया स्नान करके फिर वे उससे ऊपर आये। ऊपर आकर पृथिवी शिलापटुक पर बैठ गये । बैठकर वे वहां अश्वस्त बने। बाद में (सुहासणवरगया) सुखद् आसन से बैठ कर उन दोनों ने ( चपानयरिं अम्मापिउ आपुच्छण लवणसमु दोत्तारण च कालियवायसमुत्थणं च पोत वहणविवर्त्तिच फलयखडस्स आसायण च रयणद्दीत्तार च अणुचिते माणा २ ओह्यमणसकप्पा जाव झियायेंति ) चपानगरी का माता पिता से पूछने का - लवण समुद्र कि यात्रा करने के विषय में पूछने पर और उनके निषेव करने पर पुनः दुबारा तिवारा उनसे आज्ञा प्राप्त करने का - लवण समुद्र में उतरने का कालिका वायु के उत्थान का पोतके डूब जानेका फलक खड की प्राप्ति , - તેલ કાઢીને ખૂમ જ સરસ રીતે એક બીજાના શરીરે તેલ ચાળવા લાગ્યા ખરેાખર તેલની માલિશ કરીને તેએ પુષ્કીિમા ઉતર્યા અને ઉતરીને તેઓએ સ્નાન કર્યું સ્નાન કરીને તેઓ બહાર આવ્યા અને એક શિલા ઉપર બેસી गया त्या मेसीने तेथे आश्वस्त विश्वस्त मन्या भने त्यार पछी ( सुहासण घर गया ) सुभासन पूर्व मेसीने तेथेो मने (चपानगरिं अम्मापिउआपच्छण लग्णसमुद्दोत्तारण च कालिय वाय समुत्थण च पोहविवर्त्तिच फलयखडस्स आसायण च रयणद्दीवुत्तार च अणुचिंतेमाणा २ ओइयमणसकप्पा जाव झियार्येति ચ પા નગરીને, લવણુ સમુદ્રની યાત્રા કરવા માટે માતાપિતાએ ચાકખી ના કહેવા છતા બે ત્રણ વખત તેની તેજ વાત તેમની સામે મુકીને આજ્ઞા મેળવવાના, લવણુ મમુદ્રમા યાત્રા કરવાના, અકાળે વાવાઝોડાથી નાવ થી
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy