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________________ ५०८ - देवान् शब्दयति, शन्नयित्या परमादी-हे देशानुप्रिया: 1 गत खर पूर्व जम्बूद्वीपे दीपे भारते य-भरतक्षेो मिथिलायां राजधान्यां इम्मकस्य राजो भवने-त्रीणि कौटिशतानि, अष्टाशीतिकोटी:, भगीतिदानसहस्राणि, इमामेवयूका मर्यसपद "साइरह " सहरत-पापयत सहत्य ममाप्ति प्रत्यर्पयत । ततः खलु तेज़म्भकादेवाः, ' वेसमणेण 'श्रमणेन एपमुक्ता सन्तों इतष्टा यावत् प्रति शृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य, 'उत्तरपुरत्यिम' उत्तर पौरस्त्यम्नईशानकोणरूप 'दिसोभाग' दिग्भागम् , ' अवयमति ' कामन्ति, गच्छन्ति, अवक्रम्यात्वा यावत्-'उत्तरयेउनियार रूपाइ ' उत्तरक्रियाणि रूपाणि विक न्ति विकुर्वगा कुर्वन्ति - वित्तिा ' विकस्सिा , 'चिकुर्व ' इति सौत्रो धातु , तेन ल्यव न भवति । तयोत्कृष्टया गत्या दिव्यगत्या देवसम्बन्धि 'चोइवयमाणा' व्यतिबजन्त. आगच्छन्तः यव जम्मृद्वीप द्वीपा, भारत वर्प, यगैव मिथिला राजधानी, यौव कुम्भस्य राज्ञो भवन, तगोपागरछति, उपागत्य कुम्मकस्य राशोभाने नीणि कोटिशतानि यावत्-अष्टाशीतिकोटी , अशीतिलमाणि इमामेतद्: रूपामर्थमम्पद 'साहरति' सहरन्ति-मापय । सहत्य-यत्रैव वैश्रमणो देवस्त वोपागच्छन्ति, उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनख शिरआवत मसकेऽञ्जलि पर पहुंचा। (तं गच्छदण देवाणुप्पिया ! जहीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए कुभगभवणसि इमेयारूवे अत्थ सपदाण साहराहि ) अत हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और जबद्रीप नाम के द्वीप में स्थित भारत वर्ष क्षेत्र में वर्तमान मिथिला नगरी के कुभक राजा के भवन पर इतनी पूर्वोक्त अर्थ सपत्ति को पहुँचाओ (साहरित्ता विप्पामेव मम एयमाण त्तिय पच्चप्पिणाहि ) पहुँचा कर पीछे हमें हस की ग्ववर दो। (तएण से वेसमणे देवे सक्केण देविदेण देवराएण एव वुत्ते के करयल जाव पडि सुणेइ ) शफ देवेन्द्र देव राज के द्वारा इस प्रकार आज्ञापित किये (त गन्छहण देवाणुप्पिया' जयू दीवे दीवे मारहे चासे मिहिलाए कुभग भवणसि इमेयारवे अस्थसपदाण साहराहि) એટલા માટે હે દેવીનુપ્રિય ! તમે જાઓ અને જ બૂદ્વિપ નામના દ્વીપમાં સ્થિત ભારતવર્ષ ક્ષેત્રમાં વિદ્યમાન મિથિલા નગરીના કુભક રાજાના ભવન ઉપર ह्या भु४५ अर्थ सपत्ति सेटले द्रव्य तेमन त्या पाया ( साहरित्ता खिप्पामेव मम एयम गाल) पडायासन तमे सभने सुथित ४२। (तएण से वेर देविदेण देवराएज एव वुते इहे करयल जाव पडिमुणे)
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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