SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 603
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 985 गोरधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम् डीओ' व्याप्राटिका = उपहासार्थं शब्दविशेषान् कुर्वन्ति, अध्येक्का एकाः कात्ि 'तज्ञमाणीओ' तर्जयन्त्यः - दुर्वचनतः, 'मम प्रश्नम्योत्तरं देहि, नो चेत् पश्चाद् ज्ञास्यमि' इत्यादिना भोपयन्त्य इत्यर्थः । निच्छुभति निक्षिपन्ति = निस्सारयन्ति । ततस्तदन्तर सा चोक्षा परिव्राजिका मल्ल्या विदेहराज रकन्याया दासचे - टिकाभि: ' यावत्-हिल्यमाना निन्द्यमाना गर्ह्यमाणा, आशुरुमा=शीन को पविष्टा यावत् 'मिममिसेमाणी' मिससमिन्ती क्रोधानलेन जाज्वल्यमाना मल्ल्या निवदेह राजवरकन्याया 'पओसमावज्जइ ' प्रद्वेपमापद्यते = परमद्वेषवती जावा । तत सा में से किसी एक ने उसे क्रोध उद्भावित किया, किसी एक ने उस के सामने अपना मुख मोड लिया, किसी एक ने उस की हँसी उड़ा ने के लिये विशेष शब्दों का प्रयोग किया, किसी एक ने दुर्वचनो से उसे तर्जित किया, किसी एक ने " मेरे प्रश्न का उत्तर दे, नही तो पीछे तुझे मालूम पडेगी " इस तरह कहकर उसे डराया और वहा से निकाल दिया । (तएण सा चोक्वा मल्लीग विदेहरायवर कन्नाए दासचेडियादि जाव गररिज्जमाणी हीलिनमाणी आसुम्ता जाव मिसि भिसे माणी मल्लीए विदेहायवर कन्नाए पओसमाजइ, भिसिय गिण्ट, गिटित्ता कण्णतेउराओ पडिनिक्खमड ) इस तरह विदेह राज कि वरकन्यामल्ली कुमारी की दास चेटियो से अपमानित घृणित, और निन्दित होती हुई वह चोक्षा परिव्राजिका, क्रोध से लाल हो गई, और मिसमसाती हुई क्रोध से जाज्वल्यमान होती हुई वह विदेह राज की उत्तम काया मल्ली कुमारी के ऊपर परम द्वेपवती वन गई । , તેમાથી કાઇકે તેને ક્રોધિત કરી, કેઇએ તેની સામેથી મેા ફેરવી લીધુ કેઇએ તેની મરકી કરવા વિશેષ શબ્દોના પ્રયાગ કર્યાં, કાઈ એ દુચનેાથી તેના તિરસ્કાર કર્યો, કાઇએ તેને “ મારા સવાલના જવાબ આપ નહિંતર તારી ખમર લઈ લઈશું આ રીતે ખીક બતાવી અને ત્યાથી બહાર કાઢી મૂકી (तरण सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायrरकन्नाए दासवेडियाहिं जात्र गरडिज्ज माणी ही लिज्जमाणी, आसुकता जान मिसि मिसे माणी मलए विदेह रायवरकनए पोसमावज्जड, भिसिय गिड, गिव्हित्ता णतेउराओ पडिनिक्खमइ ) આ રીતે વિદેહુરજવર કર્યા મલીકુમાીની દાસ ચેટીયાથી અપમાનિત, ધૃણિત અને નિતિ થતી ચેક્ષા પરિવ્રાજિકા ક્રોધમા લાલચેાળ થઈ ગઈ અને કોધમા મળતી તે વિદેષરાજવર કન્યા મલીકુમારી પ્રત્યે ખૂબ જ ઇર્ષાળુ-દ્વેષ કરનારી થઈ ગઈ ܕܐ
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy