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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते अरहनकथावकवर्णनम् ३६९ अथवा ' नो दढधम्मे ' नो दृढधर्मा सोऽरद्दन्नको नास्ति दृढधर्मा ? स च शीलव्रतगुणान् किं चालयति = अपनयति यावत् परित्यजति, किं वा नो परित्यजति अत्र यावत् करणात् क्षोभवति किंवा नो क्षोभयति' खण्डयति किंवा नो खण्डयति १ उज्झति किं वा नो उज्झति ? इति बोध्यम् । इति कृत्वा = इत्येव मनसि विचार्य, एव समेक्षे, सप्रेक्ष्य अवधि = अवधिज्ञान प्रयुचे प्रेरयामि प्रयुज्य देवानुप्रियम् आभोगयामि पश्यामि | आभोग्य उत्तरपौरस्त्यम् - ईशानकोणदिग्भागं गच्छामि, गत्वा, ' उत्तरविउन्त्रिय ' उत्तरवैक्रिय करोमि, कृत्वा तयोत्कृष्टया गत्या - देवस म्वन्धिन्या गत्या व समुद्रः, यत्रैव देवानुप्रियस्तत्रैवोपागच्छामि, उपागत्य दे अरनग कि पियधम्मे ? नो पियधम्मे दढधम्मे नो दृढधम्मे ? सील ध्वगुणे कि चालेति, जाव परिचयह, णो परिच्चयइ) कि चलो अरहनक के पास चलें और चलकर यह ज्ञातकरें कि अरहनक को धर्म प्रिय है, कि नही है, वह धर्म में दृढ है कि नही है । वह अपने शीलों को, व्रतो को और गुणों को छोडता है अथवा नही छोड़ता है, उन्हें क्षुभित करता है, या नही करता है, उनका खंडन करता है या नहीं करता है। प्रवचन में एक देश से भी उस में अतिचार लगाता है या नही लगाता है (तिम्ड एव सपेहेमि ) हे अरहनक ! मैंने ऐसा विचार किया (सपेहित्ता ओहिं पज्जामि ) विचार करके फिर मैंने अपने अवविज्ञान को जोडा (पउजिन्ता देवाणुपिय ओहिणा आभोएमि, आभोइत्ता उत्तरपुरथिम० उत्तर विउव्विय० ताग उक्किट्ठाए गइए जेणेव देवाणुपिया तेणेव उवागच्छामि ) अवधिज्ञान को जोड कर मैंने उसके द्वारा आप देवानुप्रिय को देखा । पिम्मे नो दढम्मे ? सीलव्त्रय गुण किं चार्लेति जात्र परिच्चय, णो परिचयइ કે ચાલે! અર્હન્નકની પાસે જઇએ અને જઈને તપાસ કરીએ કે તેને ધર્માં પ્રિય છે કે કેમ ? તે પેતાના શીલેને, તેને અને ગુણેાને ત્યજે છે કે કેમ? તેમને ક્ષુભિત કરે છે કે નહિ ? તેમજ તેમનુ ખડન કરે છે કે કેમ ? अवयनभा मे हेराथी पशु तेमा अतियार लागे छे म १ ( ति कट्टु एव सपेहेमि ) हे अरहुन्न । मे या प्रमाणे विचार य ( सवेहिता अहिं पडजामि ) वियार हुने भे મારા અવધિજ્ઞાનથી સગતિ બેસાડી ( पडजित्ता देवाणुप्पिय ओहिणा आभोएमि आभोत्ता उत्तरपुर स्थिम उत्तर विउच्चिय०ताए उट्ठाए गए जेणेव समुद्दे जेणेव देवाणुपिया तेणेत्र उत्रागच्छामि અને તેની સગતિ વડે દેવાનુપ્રિય તમને મે જોયા घ ४७
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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