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________________ मनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० ८ महारैलादिपद राजस्वरूपनिरूपणम २५५ भात्रः । ततः खलु स महावलोडनगार: ' इमेहिं ' एभिव शास्त्रमसिद्धैः ग्बल वीसा एहि य' विंशत्याच कारणे' विंशतिस्थानकैः ' जासेत्रिय बहुलीकएहिं ' आसेfaagतैः प्रत्येक स्थानस्य सकृत् करणादासेवितानि बहुशः सेवनाद् हु ली कृतानि तैः कृप्टरसायनपरिणामैरित्यर्थः । तीर्थंकर नामगोत्र कर्म नि व्वर्त्तिसु ' निर्वर्तितवान् उपार्जितवानित्यर्थः । त जहा तद्या-विशतिस्थानकाना नामानि गाथात्रयेण दर्शयति (१-७) अर्हत् - सिद्ध- प्रवचन- गुरु- स्थविर - 'बहुश्रुततपस्विषु वत्सलता भक्ति:- यथाऽवस्थिते गुणग्रामोत्कीर्तनरूपा ( ८ ) ' तेसि तेपाम् अईदादीनां 'अभिकखण' अभीक्ष्ण= पुन पुनः ज्ञानोपयोगः ज्ञानेपूपयोगः ज्ञानोपयोगः इत्यष्ट स्थानकानि, (९) दर्शन = सम्यक्त्व, (१०) विनयो गुरुदेवादिविषयक, (११) आवश्यकम् - उभयकालमा नश्यक करणम् (१२) शील व्रतच निरतिचार व्रतमत्याख्यान निर्मल पालनम्, (१३) क्षणलवेति- कालोप है । इस के बाद उस महावल अनगार ने शास प्रसिद्ध इन विंशति स्थानकों के द्वारा कि जो आसेवित बहुलिकृत थे तीर्थकर नाम गोत्र कर्म का बध किया। प्रत्येक स्थान का एक वार सेवन करना इसका नाम आसेवित और बहुत बार सेवन करना इसका नाम बहुली कृत है | ( तजहा ) वे वीस स्थान ये हैं अरिहत (१), सिद्ध (२), प्रवचन (३) गुरु (४), स्थाविर (५), बहुश्रुत (६), तपस्वी इनमें वात्सल्यभाव-भक्ति -रखना-अर्थात् इनके यथावस्थित गुणों का उत्कीर्तन करना (७), इन के ज्ञान में निरतर उपयोग रखना (८), दर्शन का विशुद्धि करना (९) गुरुदेव आदि के विषय में विनय सपन्नता होना (१०), दोनों काल में आवश्यक क्रियाओं को करना (११), शील और व्रतों में अतिचार रहित હેતુકતા સ્રીનામ કર્મોંમા રહે છે. ત્યાર બાદ મહાખલ અનગારે શાસ્ત્ર પ્રસિદ્ધ વિંશતિ ( વીસ ) સ્થાનકા વડે-કે જે આસેવિત ખઠ્ઠલીકૃત હતા –તીર્થંકર નામ ગાત્ર કમના ખ ધ કર્યાં દરેક સ્થાનનુ એક વાર સેવન કરવું તે આસેવિત मी वार सेवन उखु ते मसीहृत ) ( त जहा ) वीय स्थानो नीचे भुण छे-मरिहत, (१) सिद्ध, (२) प्रवथन, (3) गुरु, (४) भ्यत्रिर, (च)जडु શ્રુત, (૬) તપસ્વીમા વાત્સત્યભાવ-ભક્તિ-રાખવી એટલે કે તેમના યયાવસ્થિત ગુણેનુ કીર્તન કરવુ (૭) તેમના જ્ઞાનમા નિરતર ઉપયેગ કરતા રહેવુ (૮) દર્શનની વિશુદ્ધિ કરવી (૯) ગુરુ દેવ વગેરેની સામે વિનય રાખવા (૧૦) અને સમયે (સવાર માજ ) આવશ્યક ક્રિયાએ ફરવર્તી, (૧૧) શીલ અને
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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