SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८ हाताधर्मकामा तर खलु शालीना बहरः कुडवाः शालिगभृता पहरः कुडना अभूवन मंजाता यावत् एपदेशे स्थापयन्ति, स्थायित्ला सरसन्तः सगोपायन्तो विहरन्ति । ततः खलु ते कौटुबिकास्तृतीये वाराने महारष्टियाये निपतिते सति रहन् केदारोन् सुपरिकर्मितान् यारद् टनन्ति, लरित्या सदन्ति-भाररूपेण तान् पद्धा मस्तके रकधेवा निधाय सले स्थापयितु समानयन्ति. ततोऽपनीय तानवहन्ति,समुपन समानीय 'सलय ' खरर-धान्यमर्दनस्थान ' यति' कुर्वन्ति शालीन खले स्थापयन्तीत्यर्थः, कृत्वान्सले सस्थाप्य ' मले ति ' सले प्रसार्यालीवदर्भदैयन्ति उत्खाक (उखारना) निखात (रोपना । स्पक्रिया उन्होंने दो तीन वार की यावत् धीरे २ उसके पूर्णत पफजाने पर उन्हों ने उसे काट लिया। (जाव चरण तल मलिए फरेति, करेत्ता पुणति, तत्यण सालीण यहवे फुडवा जाव एगदेससि ठाति ठोवित्ता सारयसमाणा सगोवेमाणाविररति) यावत् उसे अपने २ पैरों के तलियो से मर्दित किया। बाद में उसे पलालआदि के अपसारण (दूर ) से साफ पिया। इस तरह वहां शालियों के अनेक कुडच ( घडे ) उन से भर गये । यावत् उन कुडयो (घड़ो) को उन्हों ने ले जाकर परिले की तरह भडार में एक तरफ रख दिया। रखकर वे समय २ पर उनकी सारसभाल भी करने लगे। (तण्ण ते कौडुपिया तच्चपि वासारत्तसि महा बुडिकायसि निवइमि यहवे केयारे सुपरिकम्मिए जाब लुण नि, लुणित्ता मवहति स वहित्ता वलय करेंति, खल्यकरेत्ता मलेति, जाव रवे कुभा जाया) इस तरह धीरे २ समय निकल ने पर जय तीसरी घार वर्षा काल सम्बन्धी રીતે આ ઉત્પાત (ઉપાડવુ) નિખાત (રાપવુ ની કિતા તેમણે બે ત્રગુવાર કરી સમય જતા યથાસમયે જ્યારે પાક રૌયાર થઈ ગયે ત્યારે તેઓએ તેને કાપી લીધે (जाव चरण तल मलिए करेंति कोत्ता पुणति, तत्थण सालीण बहवे कुडवा जाव एगदेससि, ठाति ठापित्ता सारखेमाणा सगोवेमाणा विहरति) અને “યાવત’ તેને પોતાના પગોથી મુક્તિ કે વાર પછી તેમાથી ભૂસ વગેરે સાફ કર્યું આ પ્રમાણે ત્યા શાલિ ( ડાગર) નો ઘણુ કુડા-કળશે -ભરાઈ ગયા આ રીતે તે કૌટુંબિક પુરુએ પહેલાની જેમ જ શાલિથી પરિપૂર્ણ કળશેને કોઠારમાં એક તરફ મૂકી દીધા યથા સમય શાલિના કળ શેની તેઓ સભાળ પણ રાખતા હતા (तएण ते कौडविया तच्चपि व सारत्तमि महावुद्धिमायसि निवइयसि वहवे केयारे सुपरिसम्मिए जार लुणेति, लुणित्ता, समहति साहिता खलय, करेंति, खलय करेचा मलेति जार रहये कुभा जाया)'
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy