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________________ अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम्- . २०३ 'मेह निउरसभूया' मेनिकुरम्वभूता अन्योन्यशाखामशाखानुप्रवेशात् धन निरतरच्छायरमणीयमेघाना निकुरवः समूहस्तद्नत् शोभाशालिन इत्यर्थः अतएव 'पासाईया' प्रासादीपा दर्शकमनः प्रसन्नता हेतुत्वात् ' दरिसणिज्जा' दर्शनीयाः नेत्रानन्दकारित्वात् 'अभिरुवा ' अभिरूपाः कमनीयत्वात् ' पडिख्वा' प्रतिरूपा-सर्वया चित्तहारित्वात् । ततस्तदनन्तर खलु 'साली' शालय 'पत्तिया परिता-पत्रयुक्ता जाता 'वर्तिताः-वृत्ताकारतया चतुला जाता नालरूपतया शाखा दिना समतया या वृत्तभाव माताः 'गम्भिया' गर्मिता प्रवर्धनानन्तर जातगर्भा:अन्तः सातमञ्जरिका इत्यर्थ 'पम्याः' ममूता निस्सृतमञ्जरिका 'आगयगधा ' भागतगन्धाः सर्वतः प्रसरत्सुरभिगन्धाः 'खीराइया ' क्षीरकिता:समुत्पन्नदुग्मा , ' पद्धफला बरफलाः क्षीरस्य कणरूपेण परिणामादुत्पन्नफला 'पक्का ' पक्वाः कणाना परिपाकात् परिपुष्टा ' परियागया' पर्यायागता.= सर्वावयवेन पक्कापस्थामुपगताः । 'सल्लइया ' गलाकिताः शुष्कपरत्वेन निकुर भूया, पासाईया, दरसणिजा, अभिरूवा पडिरूवा ) वर्ण से वह काली हो गई आभा भी उसकी काली निकलने लगी । यावत् वह मेघ निकुरम्ब समृर जैसी हो गई। __ शाखा प्रशाखाओ के परस्पर मे प्रवेश से, सान्द्र और अन्तर रहित छाया से रमणी य मेघों के समूह सी तरह वह शोभित होने लगी। जो भी कोई उसे देखता तो उसका मन आनन्द से खिल उठता। नेत्रो को उसके दर्शन से बहुत अधिक शीतलता प्राप्न होती। इस लिये वह कमनीय और प्रतिरूप बन रही थी। चित्ताकर्षक थी और घहुत अधिक मनोज्ञ थी। (तएण साली पत्तिया, वत्तिया, गभिया, पस्या, आगय गधा खीराइया, बदकला, पक्का, पडियागया, सल्लाया, पत्तइया हरियपव्यकडा, जाया यावि होत्थो) धीरे २ समयानुसार वह તે શ્યામ રંગના થડ ગયા. તેમનામાથી કાળી આભા કુટવા લાગી યાવત તે મેઘનીકુર બ જેવા થઈ ગયા આ રીતે વાવેલી તેડાગર શાખા પ્રશાખાના પ્રવેશથી સાદ તેમજ સઘન યાથી રમણીય મેઘસમૂહે જેવી શોભવા લાગી છે કે તેના સૌંદર્ય ને જોતું ત્યારે તેનું મન હર્ષઘેવુ થઈને નાચી ઉઠતું હતું તેને જોવાથી નેત્ર શીતળતા અનુભવતા હતા એથી તે કમનીય અને પ્રતિરૂપ લાગતી હતી તે त्तिने मापनारी भर भूमी मना२ ती (तपण साली पत्तिया, पचिया, गभिया, पस्या आगमगधा, सीराइया बदफला पफापडियागया, सल्लल्या
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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