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________________ अनगारधर्मामृतवपिणी टोका अ० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् १५५ विनयेन वैयात्त्य सेवा करोति । ततः खलु स शैलकः 'अन्नया कयाई' अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले 'कत्तियचाउम्मासियसि' कार्तिकचातुर्मासिके विपुलम् अधिकम् , 'असग' अशनपानखाद्यस्वाद्यम् 'आहारमाहारिए' आहारमाहारितः चतुर्विधाहारमतिशयेन कृत्वेत्यर्थः मुबहु ' मज्जपाणय' मद्यपानक-निद्राजनकपानकद्रव्पनिशेप 'पीए' पीतः पीत्वेत्यर्थः। 'पूर्वापराहकालसमयसि' पूर्वापराहकालसमये-दिवसस्य चतुर्थे पहरे मुखमसुप्तः मनोज्ञमगीतः भोजनातिशशयेन निद्राकारकपानकद्रव्यसेवनेन च गादनिद्रा प्राप्त इत्यर्थः । यत्तु समाधिना सुखेन सुप्त इत्यर्थ इत्युक्त तन्न युक्तम् प्रमादसद्भावे समाधेरसम्भवात् अमर्यादितनिदाताः समाधेर्दूरवर्तित्वाच्च । ततस्तदनन्तर स पान्यकः 'कत्तियचाउम्मासियसि' (विणएण) बडे विनय के साथ (वेयावडिय करेइ) वैयावृत्ति करने लगा । (तरण से सेला अन्नया कयाइ) एक दिन की बात है कि शैलक अनगार (कत्तिय चाउम्मासियसि विउल असण. आहारमाहा रिए सुबहु मज्जपाणय पीए पुववरण्यकालसमयसि सुहप्पसुत्ते) चर्तुमासके कार्तिक महिने में बहुत अधिक अशन, पान, खाद्य, और स्वायरूप चतुर्विध आहार कर के और निद्राकारक पानक द्रव्य विशेष 'को पी करके दिवस के चतुर्थ प्रहर में सुख से सोये हुए थे। यहां पर जो कोइ २ ऐसा पाठ कहते हैं कि वे समाधि पूर्वक सुख से सोये हुए थे वह ठीक नहीं है । कारण प्रमाद के सद्भाव में समाधि का होना धनता नहीं है । अमर्यादित निद्रा और समाधि इनका परस्पर विरोध है ऐसी स्थिति में तो समाधि बहुत दूर रहा करती है। (तएणं से परि४५॥ द्वारा ( अगिलाए) 3 ५५ जतन! मागमा घशा विनाना मनान (विणएण) भूमर नम्र ने (वेयावडिय करेइ) यावृत्ति ४२१॥ साच्या (तएण से सेलए अन्नया फयाइ) ४ हिस रीस पि (कत्तियचाउम्मासियसि विउल असण - आहारमाहरिए सुबहु मज्जपाणय पीए पुववरणहकालसमयसि सुहप्पसुत्ते) यातुभांसना त भाममा भूम प्रभा મા અશન વાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ રૂપ ચાર જાતના આહાર કરીને અને નિદ્રા કારક આપાનક દ્રવ્ય વિશેષનુ પાન કરીને સાજના છે. વાપહેરના વખતે સુખેથી સુતા હતા અહી “ ઘણા લેકે સમાધિ પૂર્વક સુખેથી શૈલક રાજકવિ સતા હતા ? એ પ્રમાણેને પાઠ લેવાનું કહે છે તે યોગ્ય ગણાય જ નહિ કેમકે પ્રમાદઅવસ્થામાં સમાધિ થઈ શકતી નથી અમર્યાદિત નિદ્રા અને સમાધિ આ બંને વચ્ચે વિરોધ છે આવી સ્થિતિમાં સમાધિ થઈ શકતી જ નથી
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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