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________________ हाताधर्मकथाङ्गयो ५८ तत खलु स स्थापत्यापुत्रोऽनगारसहस्रेण साध तेनोदारेण मधानेन-पहजीवनिकायरक्षणपरत्वाद । उग्रेण तीव्रण परीपहोपसर्ग सहिष्णुत्वात् , प्रयत्नेनयतनामधानत्वात् बहिर्जनपदविहार विहरति ॥ १७ ॥ मूलम्-तेण कालणं तेण स्मएणं सेलगपुरे नामं नगरं हात्था, सुभृमिभागे उजाणे, सेलए राया, पउमावइ देवी, मंडुए कुमारे जुवराया। तस्स णं स्लगस्स पथगपामोवखा पचमंतिसया होत्था, उप्पत्तियाए वणइयाए कम्मियाए पारिणामियाए उववेया रज्जधुर चिंतयति, थावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे राया णिग्गतो धम्मकहा, धम्म सोच्चा जहाण देवाणुप्पियाणं अतिए वो उग्गा भोगा जाव चइत्ता हिरनं जाव (अहासुह देवाणुप्पिया' तएण से थावच्चा पुत्ते अणगारसहस्सेण सद्धि तेण उरालेण उग्गेण पयत्तेण परगहिएण बहिया जणवयविहार विहरड) प्रभु ने उनसे कहा-यथासुख देवानुप्रिय ! प्रभु की इस प्रकार आज्ञा प्राप्त कर वे स्थापत्यापुत्र पट्जीचनिकाय की रक्षा करने मे तत्पर होने के कारण उदार, परीपह और उपसर्गो को सहन करने के कारण उग्र, यत्तना प्रधान होने के कारण प्रयत्न और भगवान् की आज्ञा को प्रधान रूप से अगीकार करने के कारण प्रगृहीत ऐसे १एक हजार शिष्यों को साथ लेकर वहा से बाहिर देशों में विहार किया। सूत्र “१७" नगरीनी २ ५६ पिलार ४२१॥ याहु छ (अहासुहे देवाणुप्पिया । तएण से थावच्च अणगारसहस्सेण सद्धि तेण उराले ण उग्गेण पयत्तण पग्गहिएण पहिया जणवयविहार विहरह) प्रभुमे तेने घु- देवानुप्रिय सुभेची विखार કરે. આ રીતે સ્થાપત્યા પુત્રે આજ્ઞા મેળવીને જીવનિકાયના રક્ષણમાં સદા તૈયાર હોવાથી ઉદાર, પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરવાથી ઉગ, યતના પ્રધાન હેવાથી, પ્રયત્ન અને ભગવાનની આજ્ઞા પ્રધાન રૂપથી સ્વીકારવાથી પ્રગૃહીત એવા એક હજાર શિષ્યની સાથે ત્યાં થી બહારના દેશોમાં વિહાર કર્યો સ૧૭
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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