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________________ ७३८ - - ताधर्मकथा आत्मगतीविचार समुदपद्यत । तदेवाह-'धमागत' इत्पादि-धन्याः खलु ते राजेश्ववरयारत्साहवाहप्रभृतय , येपा खल्ल राजगृहस्य बादिः वहयो वाप्या सामान्यः पुष्करिण्य' अमल युक्ताः यावत्-सर: सर पक्तिका यकस्मात्सरसो ऽस्मिन् सरसि जल प्रवति, एघ सरसा जलाशयाना पड़ता पड़क्तिभूता जला शया इत्यर्थः निधन्ते, यत्र खलु पहुगना जनसमुदायः स्नाति च पिवति च तथापानीय च सरहति-ततो जल नाति । ततस्मादय -उचित खल्लु मम कल्ये प्रादुष्प्रभाताया रगन्या सूर्योदये सतीत्यर्थ , श्रेणिक राजानमापूच्च्च राजगृहस्य जेठ मास मे मणिकार श्रेष्ठी नद ने अष्टम भक्त किया तीन उपवास किये- और पौपध शाला में रहा- जब उसको यह तपस्या पूर्णप्राय हो रही थी तब उसे तृष्णा पिपासा और क्षुधा ने व्याकुल कर दिया। उस समय उसे इस प्रकार का विचार आया- ( धानाण ते राईप्सर जाव सत्यवाहपभियओ जेसिणं रायगिहस्स पहिया बहओ वावीओ पोक्खरणीओ जाव सरसरपतियाओ जत्यण बहुजणो हाइ य, पियड य, पाणिय च सवह त सेय मम कल्ल पाउ० सेणिय आपुच्छित्ता राय गिहस्स पहिया उत्तरपुरत्यिमे दिसिभाए वेभारपत्रयस्स अदूर सामते वस्तुपाढगरोदयसि भूमिभागसि जाय णद पोक्रवरणिं खणा वेत्तए त्तिक एव सपेहेह) राजेश्वर से लेकर सार्थवाह प्रभृति वे जन धन्यवाद के पात्र है कि जिनकी राजगृह नगर के बाहर अनेक वावडिया है,-पक्ति भूत जलाशय है कि जिन में अनेक मनुष्य स्नान करते हैं, अनेक जन पानी पीते है अनेक उन में से पानी ले जाते हैं। तो मुझे भी મણિકાર શ્રેષ્ટિ ન દે અષ્ટમ ભક્ત કર્યો-ત્રણ ઉપવાસ કર્યા–અને પૌષધશાળામાં રહ્યો જ્યારે તેની આ તપસ્યા પૂરી થવાની અણી ઉપર જ હતી ત્યારે તેને તરસ અને ભૂખે વ્યાકુળ બનાવી દીધા તે સમયે તેણે વિચાર કર્યો કે(धन्ना ण ते राई सर जाव सत्थरोहरभियओ जेसिण रायगिहस्स बहिया बहूओ वावोओ पोक्सरणोओ जार सरसरप तियाओ जत्थ ण बहुजणो हाइ य, पियइ य, पाणिय च स वहइ त सेय कल्ल पाउ० सेणिय आपुच्छित्ता गयगिहास यहिया उत्तरपुरस्थिमे बिसीभाए वेभारपव्ययरस अदूरसामते वस्तुपाढगरोइयसि भूमिभाग सि जाव पद पोक्खरणिं खणावेत्तए तिकटु एव स पेहेइ) रा२श्वरथी માડીને સાર્થવાહ વગેરે તે લોકોને ધન્ય છે કે રાજગૃહ નગરની બહાર જેમની ઘણું વાવે છે, પક્તિભૂત જળાશ છે-કે જેમા ઘણુ માણસે સ્નાન કરે છે, ઘણુ માણસે પાણી પીએ છે, ઘણુ તેમાથી પાણી લઈ જાય છે તે હવે
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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