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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ ४ गुप्ते'द्रियत्वे कच्छपशृगालद्रष्टान्त णयो रणोयत्ययः' (८, २, ११६) इति मत्रेण रेफण कारयोः व्यत्ययः । साम्प्रत वनारसनाम्ना प्रसिद्धा, 'होत्था’ आसीत् । 'चन्नो' वर्णकः वर्णनग्रन्थः अस्या अन्यमत्राद् विज्ञेयः। तस्याः खनु वाराणस्या नगर्याः, बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे, ईशानकोणे गङ्गायां महानद्यां मृतगङ्गानीरहदो नाम हुद आसीत् । स कीदृश इत्याह-'अणुपुत्वसुजायवप्पगंभीरमीयलजले' अनुपूर्व सुजानवप्रगम्भीरशीतल जलः, अणुपुष' अनुस्व-क्रमेण, 'सुजाय' सुजाता सुष्ठु स्वयं स्वभावतः समुत्पन्नाः, 'वप' वप्राः-तटा यत्र स तथा, गम्भीरम अगाय शीतलं जलं यत्र स तथा, अनुपूर्वमुजातवपश्चासौ गम्भीरशीतल जल इति कर्मधारयः। 'अच्छविनलसलिलपलिच्छन्ने' अच्छविमलसलिलप्रतिच्छन्नः= अच्छं स्फटिक रत्नवत्स्वच्छं विमल-निर्मलं यत सलिलं-जलं तेन प्रतिच्छन्न = मतिपूर्णः, 'संछन्नपत्तयुप्फपलासे' संछन्नपत्रपुप्परलागः तत्र पत्राणि कमलकुमु प्ररूपित किया है-(तेणं कालेण तेण समएण वाणारसी नामं नयरी होत्था) उग काल और उस समय में वाराणसी नामकी नगरी थी (वन्नओ) इस नगरी का वर्णन अन्य दूसरे मूत्र से जान लेना चाहिये । (तीसे ण वाणारसीए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिमाए) उम वाराणसी नगरी के बाहर ईशान कोण में (गगाए महानदीए मयं गतीरइहे नाम दहे होत्या) गंगा महानदी में मृत य गोतीर हुद नाम का हूद था। (अणुपुबसुजायचप्पगंभीरसीयलजले) यह हूद क्रम २ से स्वभावतः समुत्पन्न हुए तटों से गोभित था, तथा गभीर शीतल जल से परिपूर्ण था । (अच्छविमलसलिलपलिच्छन्ने) यही बात अच्छ विमल इत्यादि पद द्वारा व्यक्त की गई है। इसमें जो जल भरा हुमा था वह स्फटिक रत्न के समान स्वच्छ था--और निर्मल था । (संछन्न प्रमाणे निरुपित ध्याछ--(तेग कालेण तेण समएण वाणारसी नामनियरी होत्या) ते अणे मने. ते मते वाराणुसी नामे नगरी ती (वन्नी) मा नगरीनु वर्णन olat सूत्र द्वारा से नये (तोसेण वाणारसीए नयरीए वहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए) ते वाराणुसी नाशनी मा२ थान rey भां (गंगाए महानदीए मयंगतीरदहे नामं दहे होत्या) 0 मानीमा भृत तीर है नामे : ५। हता. (अणुपुवसुजायवप्पगंभीरसीयलजले) मा ५। धीमे धीमे पोतानी भेणे २१ मनी गयेसा नाथी शोलत डतो मने eat शीत यी परिपूर्णता (अच्छविमलमलिलपलिन्ने) અછવિમલ પદ વડે એ જ વાત સ્પષ્ટ કરવામા આવી છે આ ઘરાનું પાણી भारस ५८५२नी म २०२७ अने नि तु (संछन्नपत्तपु'फपलासे) पत्र,
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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