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________________ अनगारधर्मामृतवर्पिणीटीका अ. ३ जिनदत्त-सागरदत्तचरित्रम् एकस्यां चप्पुटिकायां-अङ्गुष्ठेन साधमली तालिकायां चुटकीति भाषायाम् 'कयाए समो गीए' कृतायां सत्यां, 'अणेगाई' अनेकानि 'नलगमयाई नर्तन शतानि 'के कारवसयाणि' केकारवशतानि च कुर्वत् विहरति-विचरति । ततस्तदनन्तरं खलु ते मयरपोषकास्तं मयूरपोतकं उन्मुक्तबालभावं यावत् नर्तन शनानि केकारवशतानि च कुर्वन्तं पश्यनि, दृष्ट्वा तं मयापोतक गृह्णन्ति, गृहीत्वा जिनदत्तपुत्रस्य ग्रे 'उवणेनि' उपनयंति- अर्पयन्ति । ततस्तदनन्तरं ग्बलु स जिनदत्तपुत्रः सार्थवाहदारको मयरपोतरुप्, उन्मुक्तवालमा यो नर्तनशतानि केकारवशतानि च कुर्वन्तं पश्यति दष्वा च हृष्टतुष्टः-- अतिशयेन संतुष्टः सन् 'तेसि' तेभ्यो-मयूरपोपकेभ्यो विपुलं जीवियारिह जीविकाईमाजन्मनिर्वाहयोग्यं प्रीतिदानं पारितोपक ददाति यावत् सत्कारसम्मानयुक्तं कृत्वा 'पडिविसज्जेड" प्रतिविसर्जयति ॥ सूत्र १५ ॥ में सैकड़ों चाक थे। कंठ नील था। नृत्य कला में यह तत्पर रहता था। (एगाएं चप्पुडियाए कयाए समागीए अणेगाई नदुल्लगमयाई केकार वसयाई य करेमाणे विहरह) एक ही चुटकी करने पर वह सैकडों बार नृत्य और सैंकडो बार के कारव कर दिया करता था। (तएणं से मजापोसग्गा त मऊरपोयगं उम्मुक जाव करेमाणं पामइ, पामित्ता, तं मऊरपोयगं गेहति गेह्नित्ता जिणदत्तपुत्तत्स उवणेति) इसके बाद जब उन मयूर पोपकोंने उस मयरपोतक को बाल भाव सेरहित यावत् एक ही चुटकी में सैंकडो बार नृत्य करते हुए तथा सैकडो वार केफारव करते हुए देखा तो देखकर उसे जिनदत्त के पास लेकर पहुंचे। (तएणं से जिणदत्तपुत्ते मत्थवाहदारए मकरपोयगं उम्मुक्क जाव करेमाणं पामड, पासित्ता हतुढे तेसि पिउल जीवियारिहं पीइदाण जाव पडिविसज्जेइ) जिनदत्तपुत्रने ज्यों हो उसे बालभाव से हेतु तु (एगाए चप्पुडियाए कयाए अणेगाइ नईल्लगसयाइ केकारवसयाई य करेमाणे विहरई) मे यपटी सामतानी साथे तेसे ४ो पा२ नृत्य मने से ४ो पार टडतुडतु(तएण' से मऊरपोसग्गा त मऊरपोयगं उम्मुकजाव करेमाण पासह पासित्ता तं मऊरपोयगं गेण्हंति गेण्डिन्ता जिणदत्तपुत्तस्म उसणेति) त्यार બાદ મોરને ઉછેરનારાઓ તે બચ્ચાને જુવાન તેમજ એક ચપટીને સાંભળીને સેંકડો વખત નાચતું તેમજ સેંકડો વખત ટકતું જોઈને તેને જિનદત્તની પાસે दाव्या. (तएण से जिगदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए मजापोयग उम्मुक्क जाव करेमाण पासइ, पासित्ता हट्ट तुढे तेसि विउलं जीवियारिहं पीईदाण जाव पडिविसज्जेइ) न्यारे निहत्तना पुत्रे भारना याने गया पटावीन
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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