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________________ ७१४ ज्ञाताधर्मकथाजसूत्रे टीका-'तएणे से मऊरपोयए' इत्यादि--ततस्तदनन्तर खलु स मयूरपोतकः 'उम्मुक्कबालभावे' उन्मुक्तबालभावः त्यक्तवालावस्थः 'विनायपरिणयमेत्ते' विज्ञ(तपरिणतमात्रः, विज्ञातं विज्ञान तत् परिणतमात्र परिपक्वावस्थ यस्य स तथा परिपक्वविज्ञान इत्यर्थः, दर्शनमा णैव तेन नृत्यकलादि विज्ञोतमिति भावः। 'जोव्वणगमणुपा' यौवनकमनुप्राप्त:-तरुणत्वं संप्राप्तः 'लक्ख वजणगुणोत्रवेए' लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेतः---तत्र लक्षणानि-मयूरलक्षगानि व्यञ्जनानिमयरसम्बन्धि शिखाचन्द्रकादीनि मयूरगुणाश्च तैरुपपेतः। 'मागो. म्माणप्पमागपडिपुण्णपक्खपेहूगकलावे' मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णपक्षपिहूण कलापः मानेन विष्कम्भतः, विस्तारतः। उन्मानेन बाहुल्यतः, उत्सेधेन-उच्चतयों प्रमाणेन चायामतः-प्रतिपूर्ण पक्षपेहग कला पस्य म तथा पेणकलापः पिच्छसम्हः । 'विचितापिच्छे विचित्रपिच्छ: विचित्राणी-विविधरूपाणि पिच्छानि यस्य स तथा 'सतचंदए'शतचन्द्रका-शत सख्यका चन्द्रका यस्य स तथा'नीलकंठए'नीलकण्ठकः नीलवर्णो कण्ठो यस्य स 'नचणसीला' नर्तनशीलकः-नृत्यकला परायणः, 'एगाए चप्पुडियाए' 'तएणं से मऊरपोयए उम्मुक्कवालभावे' इत्यादि । टोकार्थ-(तएण) इसके बाद (से मापोयए) वह मयूरपोतक (उम्मुक्कबालभावे) बालभात्र का परित्याग कर-विन्नायपरिणयमेने जोवणगमणुपत्ते) परिपक्वज्ञान वाला बन गया इससे वह देखने मात्र से ही नृत्यकला जानने लग गया। जब वह योवन अवस्था को प्राप्त हुआ तो (लक्खवंजणगुगोववेए) लक्षणों से तथा मयर संबंधी शिखा चन्द्रक आदि व्यंजनों से एवं मयरसंबन्धी गुणों से युक्त हो गया। (माणुम्माणप्पमाणपडिपुन्नपवखपेहूण कलावे विचित्तपिच्छे सनचंद नीलकंठए नच्चणसीलए) मानसे (विरतारकी अपेक्षा) उन्मान से (ऊंचाईकी अपेक्षा) और प्रमाण से (यायामकी अपेक्षा) हमका पिच्छ समूह प्रतिपूर्ण था। इसके पांख विविध रूपवाले थे, पांखों 'तएणं से मऊरपोयर उम्मुक्कवालभावे' इत्यादि ॥ टोकार्थ--(तएण) त्या२ पछी (से मऊरपोयए) भानु श्यु (उम्मु. क्वालभावे) माटु थयु (विन्नायपरिणयमेत जोवणगमणुपत्ते) त्यारे सपूर्ण जानी 5 गयु न्यारे ते नुवान थयु त्यारे ( लक्खणवंजणगुणेव वेए) मारना લક્ષણો–કલગી, ચન્દ્રક પીછાઓ અને મોરના બધા ગુણોથી યુક્ત થઈ ગયું. (माणम्माणप्पमाणपडिपुन्नपखणेहणकलावे विचित्तपिच्छे सतचंदए नीलकंठए नचणसीलए) भानथी (विस्तारनी टिमे) -भानथी (यानी ष्टिगे) અને પ્રમાણથી (આયામની દૃષ્ટિએ) તેના પીછા પ્રતિપૂર્ણ હતાં. તેનાં પીછામાં સેંકડો ચંદ્રકા હતા અને તેને કઠ ભૂરા રંગનો હતે નાચવા માટે તે હમેશા તૈયાર જ
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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