SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 725
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगारधर्मामृतवर्पिणीटीका अ. ३. जिनदत्त-सागरदत्त चरित्रम् ७०७ वेति निज कर्णान्ति के नीत्वा टिटि-इति शब्दं कारयति । ततस्तदनंतरं खलु तन्मयर्या आडकमभीक्षण भीक्ष्णमुहय मानं यावच्छन्दायमानं क्रियमाणं सत 'पोचडे' पोच्चडं निःसारं पोतोत्पादनशक्तिरहितमित्यर्थः 'जाए' जातं चा सीत । ततस्तदनन्तरं खलु समागरदत्तपुत्रः सार्थवाहदारकः 'अन्नया कयाई' अन्यदा कदाचित् एकदा 'जेणेब' यत्रैव 'से' तन्मयर्या अंडकं तेणेव' नत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तन्मयूर्या अण्ड : 'पोचड़मेव निर्जीवमेव 'पास' पश्यति, दृष्ट्वा चेन्यचिन्तयत्. 'अहो' इति खेदे 'ण' अल कृनौ 'मम' मम 'एम किलावणए' एप क्रीडनकः क्रीडाकरणार्थ मयूरीपोतकः, मयूर्याः शिशु न जात इति कृत्वा 'ओस्यमण' अपहतमनाः-निरागचित्तः, यावत् 'झियाय' ध्यायनि-आर्तध्यानं करोतीत्यर्थः ।। तथा चार २ अपने कर्ण के पास ले जाकर टि टि इस प्रकार से शब्द को करवाया (तएण से मऊरी अडए अभिकखण २ उवत्तिज्जमाणे जाव टियावेजमाणे पोचडे जाए यावि होत्या) इस तरह वह मयूरी अंडक बार बार उहिर्तित यावत् शब्दायमान क्रियमाण होता हुआ निःसार बन गया-पोतोत्पादन शक्ति से रहित हो गया। (तएण से से सागरदत्ततो सत्यवाहदारए अन्न या कराई जेणेव मे मऊरी अड? तेणेत्र उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं मऊशेअंडयं पोच्चडमेव पासइ) कुछ दिनों के बाद वह सार्थवाह दारक सागरदत्त पुत्र जहां वह मयूरो का अंडा रखा हुआ था। वहां गया-जाकर उसने उस मयुरी अंडक को निर्जीव देखा (पासित्ता अहो णं ममं एस किलावणए ममी पोथए ण जाए त्तिक ओडयमण जाव झियायइ) देखकर उसे दुःख हुआ-उसने सोचा--मेरे लिये यह क्रीडा करने के योग्य मयो पोतकनिष्पन्न नहीं દીધું, અને ઈડાને વારંવાર પિતાના કાનની પાસે લઈ જઈને “ટિ ટિ આમ શબ્દ रावाव्या. (तएणं से मऊ अंडए अभिक्खण२ उच्वतिजमाणे जाव टिहिया वेज्जमाणे पोचडे जाए यावि होन्या) २0 ते पारंवार उदाववाथी मसेवाथी તેમ જ તેને શબ્દ યુકત બનાવવાથી તે ઢેલનું ઈંડું નિ સાર થઈ ગયુ. બચ્ચાને उत्पन्न ४२वानी ताथी राहत आना गयु (नएण से सागरदत्तपुत्तं सन्यवाहदारए अन्नया कयाई जेणेव से मऊ अंडए तेणेव उवागच्छड, उपगच्छिता तं मऊरीअंडयं पोच्चडमेव पासइ) सा हिवस पछी साबवाड सागसत्तने તે પુત્ર હેલના ઈંડાની પાસે ગયે. અને ત્યાં તેણે હેલના ઈંડાને નિર્જીવ જોયું (पासित्ता अहो णं मम एल किलावणए मऊरीपोयए ग जाए निक ओहयमण जाव प्रियायइ) ने तेने भूम हु.५ थयु, भनभां ते विद्यार વા લાગે મારી કીડા માટે આ તેલનું ઈડું નિષ્પન્ન થયું નથી આ રીતે વિચાર
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy