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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ. ३ जिनदत्त - सागरदत्तचरित्रम् पुष्पगन्ध गृहीत्वा देवदत्तया गणिकया सार्द्ध सुभूमिभागस्योद्यानस्य उद्यानश्रियम् -- उद्यानशोभाम् प्रत्यनुभवतोः - उपवनशोभादर्शनादिना प्रमोदयतोः विहर्तु = विलासितुम् इति कृत्वा अन्योऽन्ययोरेतमर्थ प्रतिश्रुणुनः घतिश्रुत्य निश्चित्येत्यर्थः 'कल' कल्ये 'पाउप्पभाया रयणोए' मादुष्प्रभाताया रजन्यां रात्र्यन्ते प्राच्यां दिशि प्रकाशोदये कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयतः शब्दयित्वा एवमवादिष्टाम् गच्छत खलु सूर्य देवानुमियाः ! विपुलमशन( त सेयं खलु अम्हं देवाणुपिया) हे देवानुमिय ! हम दोनोंका अब यह अच्छा है कि (कल्लं जाव जलते त्रिउलं असणं उचक्खडाविना तं विल अस४ ध्रुवपुप्फगववत्थं गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धि ६८३ भूमिभागस्स उज्जागस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुभवमाणाण विहतिए) हम दोनों कल जब कि प्रभात हो जाय और सूर्य प्रकाश हो जाय तब विपुलमात्रा में अशन पान, खाद्य, और स्वाद्य चारों प्रकार का आहार निष्पन्न करा कर उस निप्पन्न हुए अगन आ. ४ चारों प्रकार के आहारको तथा धूप, पुष्प, गंध, और वस्त्र को लेकर देवदत्त गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान की उद्यान श्री का अनुभव करते हुए विचरण करें। (त्ति अन्नमन्नस्स एयम पडिसुर्णेति) ऐसा विचार उन दोनोंने किया परस्पर के इस विचारको स्वीकार कर लिया (पडिमुणित्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए कोडबियपुरिसे सहावे ति) विचार स्वीकृत हो चुकने के बाद कल जब रात्रि प्रभात प्राय हो चुकी और सूर्य प्रकाशित हो चुका तब उन दोनोंने अपने२ कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया (सदावित्ता एवं ( सेयं खलु अम्ह देवाणुपिया) हे देवानुप्रिये । खायो भने माटे से वात सुमइय थशे (कल्लं जावजल ते विडलं असणं ४ उचक्खडावेत्ता तं विल असणं ४ धूत्र, पुप्फ, गंधवत्थ गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्भि सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाण सिरिं पच्चणुभवमाणाणं विहरित) भावती असे न्यारे સવાર થાય અને સૂર્ય પ્રકાશતા થાય ત્યારે પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય, અને સ્વાદ્ય ચારે પ્રકારના આહાર બનાવડાવીને તે ચારે જાતના આહારને તેમજ ધૂપ, પુષ્પ, ગંધ અને વસ્ત્રને લઈને દેવદત્તા ગણિકાની સાથે સુભૂમિ ભાગ ઉદ્યાનની उद्यानश्रीने अनुभवता विहार इ. (त्तिकहुँ अन्नमन्नस्स एयम पडिसृणेति ) या विचारने अनेो स्वीअरी सीधी (पडिमुणित्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए कोडबिय पुरिसे सावेंति) विचारनी स्वीकृति माह न्यारे रात्रि पसार પ્રભાત થયું અને સૂરજના પ્રકાશ ચેામેર પ્રસર્યો ત્યારે બંનેએ પોતપોતાના કૌટુબિક थुषोने मोहाव्या. (सद्दावित्ता एवं वयासी) गोसावीने छु - (गन्छ णं देवा
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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