SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 666
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८८ ज्ञाताधर्मकथानमन्त्र धोयटियं' धौतमृत्तिकांशुद्धसुगन्धितमृत्तिकां गृह्णाति, गृहीत्वा पुष्करिणीम् 'ओगाइ' अवगाहते-प्रविशति, अवगाद्य 'जलमज्जणं जलमज्जनंजलेनशरीरशुद्धिं करोति, कृत्वा 'हाए' स्नातः सर्वतः कृतस्नानः 'कयवलिकम्मे' कृतवलिकर्मा कृतं स्नानान्तमवश्यकरणीय-पशुपक्ष्यादिनिमित्तमन्नदानादिरूप बलिप में येन सः, कृनदानकृत्य इत्यर्थः, यावद रानगृहं नगरमनुपविशति, अनुप्रविश्य राजगृरनगरस्य मध्यमध्येन यत्रैव म्बक गृह तोव 'गमणाए' गमनाय ‘पहारेत्थ' प्रधारयति-विचारयति, गृहं प्रति गमनायोद्यतो भवती त्यर्थः, गृहं गच्छत्तीति भावः। ततः खलु तं धन्यं सार्थवाहम् 'एजमाग' गजमानम् आगच्छन्त दृष्ट्वा राजगृहे नगरे बह्वा निजकश्रेष्ठिसार्थवाहप्रभृतयः जाकर उसने वहां वाल बनवाये । (कारवित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेत्र उआगच्छद) दाढी मूछ आदि के बाल बनवा कर फिर वह जहां पुष्करिणी थी वहां गया। (उवागच्छित्ता अह धोयमट्ठियं गेण्हइ) जाकर उसने वहां से शुद्ध सुगंधित मिट्टी को लिया--(गिहिता पोखरिणी ओगाहड) लेकर वह बाद में उस पुष्करिणी में प्रविष्ट हुआ। (ओगाहित्ता जलमजणं करेइ, करित्ता हाए कयवलिकम्मे जाव रायगिहं नयरं अणुपविसइ) प्रविष्ट होकर वहां उसने स्नान किया म्नानकर वायसादि पक्षियों के लिये अन्नादि देने रूप वलिकर्म किया। यावत् राजगृह नगरमें वह प्रविष्ट हुआ । (अणुपविसित्ता रायगिहनयरस्स मज्झमज्ज्ञेणं जेणेच सए गिहे तेणेव पहारेत्य गमणाए) प्रविष्ट होकर फिर वह ठीक राजगृह नगर के वीचो बीचबाले मार्ग से होता हुआ-जहां अपना घर था उस तरफ कारवेइ) त्या न तो वाण घाव्या (कारवित्ता जेणेव पुक्ख परिणो तेणेत्र उवागच्छइ) बाढी भूछ भने भाथा कोरेना वा सा ४२वीन ते पुरिणी त२६ गया. (उवागच्छित्ता अह धोयमट्ठिय गेण्डइ) त्या ४४ने तेरे सुवासित भाटी सीधी (गिम्हित्ता पोखरिणी ओगाहइ) भाटी ने तो मुशिमा प्रवेश यो. (ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ करित्ता हाए कयवलिकम्मे जाव रायगिह नयरं अणुपविसह) प्रवेशीने तेरे नान यु. स्नान शने तेथे 11 वगेरे પક્ષીઓને માટે અન્ન વગેરેને ભાગ આપીને બલિ કર્મ કર્યું ત્યાર બાદ તે રાજગૃહ नाभा आव्यो (अणुपविमित्ता रायगिहनगरस्स मज्झ मज्झेणं जेणेव मए गिहे तेणेव पहारेत्य गमणाए) नगरमा मापान नगरनी कश्यना भाग यी ५सार थाने ज्या तेनु ५२ तु त्या गो. (तपणं त धण्णं सत्यवाह
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy