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________________ अनगारधर्षिणीटीका अ. २ स. ८ देवदम् पान्यकदासचेदकस्य एतमथ श्रुत्वा निशम्य तन च महता पुत्रशाकेन 'अभिभूए' अभिभूतः = आक्रान्तः सन 'परसुणिय क्षेत्र' परशुनिकृत्त इब परशुना=कुठारेण निकृतः = छिन्नः 'चंपगपायनेव' चम्पकपादप = चम्पक वृक्ष इत्र 'धमत्ति धरणीयलमि' 'स' इति शब्देन भूमितले 'सव्वगेमिं सर्वाङ्गैः ': 'संनिवड' संनिपतितः । ततः खलु स धन्यः साहः 'तनो मुहुततरस्स' ततो मुहूर्तान्नरम्य =मुहूर्तस्य पश्चात् मुहूर्तानन्तरमित्यर्थः 'आसत्थे' आम्वस्थः, आश्वस्तो वा=माप्तवेष्टः 'पच्छागयपाणे' पश्चादाग तमाणः=पूर्व मृतप्राण इव भूत्वा पुनर्जागरितमोणः सन् देवदत्तस्य दारकस्य 'सन्चओ समता' सर्वतः समन्तात् = सर्वासु दिशासु मार्गगगवेषणं करोति, ६२१ आदि में डाल दिया है । इस प्रकार कह कर वह धन्य सार्थवाह के पैरोंपर गिर पडा । (नएण से धन्ने सत्यवाहे पंथयदासचेडयस्स एयम मोच्चा णिसम्म तेगय महया पुत्तेसोएणा भिभूए समाणे परसुणियत्ते चपगपायवे सत्ति धरणीतलसि सन्बंगेर्हि सन्निवइए) इस प्रकार वह धन्य सार्थवाह पथक दासचेटक से इस अर्थ- समाचार को सुनकर और उसे हृदय में अवधृनकर उस महान् पुत्र शोक से युक्त होता हुआ परशु कुठार से काटे गये चंपक वृक्षके समान समस्त अंगों से इकदम जमीन पर गिर पडा । (तएणं से धन्ने सत्थवाहे तओ मुहुत्तंतररस आसत्थे पच्छागयपाणे देवदिन्नस्स दारगम्स सन्चओ समंता मग्गणगवेसण करेड) बाद मे धन्य सार्थवाह १ मुहूर्त के बाद आश्वस्त हुआ ऐसा उस समय मालुम हुआ कि मानों इसमें प्राण लौटकर पुन: आ गये हैं-अपने पुत्र देवदत्त की सब तरफ चारों दिशाओं मे मार्गणा गवेषणा તેનુ અપહરણ કર્યુ છે. અથવા બાળકને કોઈ દુષ્ટ ખાડા વગેરેમાં ફેંકી દીધા છે. मा ते आता ते धन्यसार्थवाहना पगे पडयो (तए णं से धण्णे सत्थवाहे पथप्रदासचे यस्स एयमड सोच्चा णिसम्म तेणय महया पुत्तसोयेणाभि भूये समाणे परसुणियत्तेत्र चपगपायवे सत्ति धरणीतलं सि सन्बंगेहि सन्निवइए) या प्रभाो धन्य सार्थवाहे पांथम्हास बेटना भेटिथी मधी विगत સાભળીને તેને ખરાખર હૃદયમાં ધારણકરીને મહાન પુત્રશેાકથી પીડાતા કુહાडीथी अपेक्षा यथाना वृक्षनी प्रेम ते पृथ्वी उपर पडी गयो, (त एणं से धणे सत्यवाहे तओ मुहुत्ततरस्स आमस्थे पच्छागयपाणे निस्सार गम्स सचओ समता मग्गणगवेसण करेइ) त्यार माह मे मुहूर्त પછી ધન્ય સાવાહ ભાનમાં આવ્યા. તે વખતે જાણે ફરી તેએમા પ્રાણનુ अथરણ થયુ હાય તેમ લાગ્યું. ઊભા થઈને તે પોતાના પુત્ર દેવદત્તની ચેમેર તપાસ
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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