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________________ ६१५ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ. २ स. ७ देवदत्तवर्णनम् ་ चेट 'मतं' प्रमत्तम् अन्यत्र संक्रानचित्त पश्यति दृष्ट्वा दिसालो' दिशावली क- 'अम्मिन्नवसरे कस्यापि गमनागमनमस्ति न वा ?" इति सकलदिशा निरीक्षणं करोति, कृत्वा देवदत्तं दारकं गृह्णाति गृहीत्वा 'कक्वंसि' कक्षे= चामूळे 'अल्लियावेइ' आलीनयति = अन्तर्धानं करोति आलीनयित्वा 'उत्त रिज्जेगं' उत्तरीयेण=उपरिवस्त्रण 'दुपट्टा' इति भाषायां तेन 'विदेह' पिदधाति, =मच्छादयति, प्रच्छाद्य शीघ्र स्वरितं चपलं वेगितं शीघ्रातिशीघ्नमित्यर्थः राजगृहस्य नगरस्यापद्वारेग निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव जीर्णोद्यान. यत्र भग्नकूपकस्तत्रैत्रोपागच्छति उपागत्य देवदत्तं दारकं 'जीवियाओ' जीविनात् च्छित हो गया -- ग्रथित हा गया -- उनमें एकाग्र बन गया, अथवा गृह-लुब्ध हो गया -- इन्हें में लेल इस स्थिति से युक्त हुए उसने साथ में पथक दास चेटक का भी अन्यत्र संलग्न चित्तवाला देवा (पासिता दिसालोयं करेड़ करिता देवदन्नं दारयं गेण्ड) देखकर फिर उसने दिशावलोकन किया - आजू बाजू को ओर इधर उधर देखा की कहीं से कोई आता जाता तो नहीं है, जब कोई कहीं नहीं दिखाईपडा तो उसने उसी समय उस देवदत्त दारक को उठा लिया । (गेण्डित्ता क अल्लियावे, अल्लिया वित्ता उत्तरिज्जेणं पिइ) उठाकर फिर उसने उमे अपनो काँख में छुपा लिया । छुपाकर बाद में उसे दुपट्ट से ढक लिया (पिहिता सिग्धं, तुरियं चत्रलं चेयं रायगिहस्स नयरस्स अवधारणं निग्गच्छङ) ढक कर वह फिर वहां से शीघ्र, त्वरित, जल्दी जल्दी राजगृह नगर के अपहार पिछले द्वार २ से बाहर निकला (निग्गच्छित्ता जेणेव जिष्णुजाणे जेणेव पासड) हेवहत्तने गुडु भूल्य धरेणांगोथी असङ्कृत लेने ते मोहवश था गयो, તેનુ ચિત્ત ધરેણાંઓમા જ ચાંટી ગયુ અથવા તે તે લેાભાઇ ગયા. આ ઘરેણાઆને હું હરી લઉં. આ જાતના વિચાર તેના મનમા સ્ફુર્યો ચારે દાસ ચેટક पथने चतु त्या थोडे दूर रमतमां तल्लीन लेये. (पासिता हिमालय करेs करिता देवदन्नं दारयं गेव्हड ) पथने लेयो यही तेरो मेरो भवतु તે નથી ? જયારે તેને કોઈ દેખાયુ નહિ. ત્યારે તેણે તરત ખાળક દેવદત્તને ઉપડી बघ (गेव्हित्ता कति अल्लिया अलियावित्ता उत्तरिज्जेग पिछेड़) उपाडीने तेथे माजउने चडण्याभां छुपावीने तेने दुपट्टाथी ढाड़ी टी (विहित्ता सिग्यं तुरिय चाले चेडर रामगिन नवरस अवहारेगं निगच्छड़) डांडीने ते सत्वरे त्वरित गतिथी गृह नगरना अयद्वारथी मडार नीजी गयो. (निगच्छित्ता जेणेव जिष्णुज्जाणे जेणेव भग्गक़बए तेणेव उवागच्छन् ) नीडजीने ते ते नया नूनुं उद्यान भने लग्न होतो त्या योग्य ( उवागच्छित्ता
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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