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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका. अ. २ सू. ५ भदासार्थवाहीविचार' . ६०१ धूपं दहति, दग्बा जानुपादपतिता पनलिउडा' प्राञ्जलिपुटायोजितकरद्वया एवमत्रादीत-'यदि खलु अहं दारकं वा दारिकां वा 'पयायामि प्रजन यामि-प्रजनयिष्यानि तदा खलु अहं यागं च यावत् अनुरद्धयासि =संबद्धयिष्यामि ! 'त्तिक?' इति कृत्वा इत्युक्त्वा उपयाचितं करोति. कृम्वा यत्रा पुष्करिणी तत्रोपागच्छति, उपागत्य विपुलमान पानं ग्वाद्य स्वाद्यमास्वादयन्ती यावद् विहरति। तदनन्तरं सा 'जिमिया' जिमितासुक्ता यावद् 'सुई भूया' शुचीभूता-प्रक्षालितहस्तमुखा सती यत्रौत्र स्वक चंदनादि गंध द्रव्यों को रखा अथवा उनके ऊपर चन्दनादि तेल को छिड़का आरतगर आदि सुग धिद्रव्यों का उन्हें समर्पण किया विलेपनद्रव्य उन पर लगाया । (करिता जाव धृवंडहइ डहिसा जाणुपायपडिया पंजलिउडा एवं वयासी) इन सब वस्तुओं का समर्पण करने के बाद फिर उसने वहां धूप को जला कर फिर वह उनके समक्ष दोनों घुटने टेक कर नीचे जमीन पर झुक गई और दोनों हाथ जोड कर इस प्रकार प्रार्थना कलने लगी (जइणं अहं दारगं वा दारिगं वा पायायामि तो णं अहं जायं च जीव अणुवड्ढेमि तिम उवाइयं करेइ) यदि मैं पुत्र अथवा पुत्री को जन्म दूंगी तो आपकी सेवा पूजा करूंगी यावत् आपके कोष की वृद्धि करूंगी-इस प्रकार उमने प्रार्थना रूपमें मनौती मानता मनाई (करित्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता विउलं असणं४ आसाएमाणी जाव रिहरड) मनौती मना कर फिर वह उस पुष्करिणी पर आई आकर वहां उसने उस विपुल खाने पीने की सामग्री का आहार किया (जिमिया जाव सुईभूया जेणेव सएगिहे तेणेव उवागया) आहार कर के फिर उसने हाथ કર્યું. અગર તગર વગેરે સુગંધિત દ્રવ્ય અર્પણ કર્યો. અને સુગંધિત લેપનો લેપ કર્યો. (करित्ता जाव धूवंडहइ डहिता जाणुपायपडिया पजलिउडा एवं वयासी) આ બધી વસ્તુઓનું સમર્પણ કરીને તેણે ધૂપસળી સળગાવી અને સળગાવીને તે તેમની સામે બંને ઘૂંટણે ટેકીને નીચે પૃથ્વી ઉપર નમી અને બંને હાથ જોડીને આ પ્રમાણે प्रार्थना ४२वा दासी (जइणं अहं दारगं वा दारिगं वा पायायामि तोणं अहं जायं च जाव अणुबड़ेमि त्तिकः उवाइयं करेड) ने पुत्र पुत्रीन म मापाश તો આપની સેવા-પૂજા કરીશ અને આપના નિધિની અભિવૃદ્ધિ કરીશ. આ રીતે તેણે प्रार्थना ४२di भानता भी करित्ता जेणेव पोखरिणी तेणेव उवागच्छड उवागच्छित्ता विउलं असणं ४ आसाएमाणी जाव विहरइ) भानता मानानाने ते धुरिणीना id वी मने गया तो २१ सारी पे सोन यु (जिमिरा जाव सुईभूया जेणेच सए गिहे तेणेव उवागया) PALS२ वगेरे ४ीने त हाथ
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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