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________________ अनगाराधर्मामृतवर्पिणी टीका अ.सूत्र. ५ धन्यालार्थव हीविचार गृहन्ति, गृहीत्वा पुsal णीतः प्रत्यवरोहति, प्रत्य वरुह्य त सुबहु पुष्पगन्धवस्त्रमाल्यालङ्कारं गृह्णन्ति, गृहीत्वा यत्रैव नागगृह च यापद् वैश्रमवणगृहं च तत्रीयोपागच्छति, उपागत्य तत्र खलु नागपतिमानां च यावद वैश्रमणप्रतिमानांच. 'आलोए' आलोके दृष्टिपथमागते सति प्रणाम करोति, कृत्वा 'ईसिं पञ्चण्णमइ' ईपत्मत्युन्नमति स्तोकं प्रणमति, प्रत्युन्नम्य 'लोभहत्थगं' लोमहस्तकंमयुरपिच्छपमार्जनक 'परामुमड' परामशति-नाति गिह इ) बाद में जब वह अच्छी तरह स्नान कर चुकी और काकादि पक्षी को अन्नादि को दिया तब गीली पटशाटिका पहिने हुए ही उसने वहां जितने कमल थे यावत् सहनपत्र युक्त महाकमल थे उन सबको उस पुष्पकरिणी से लिया और (गिह्नित्ता पुस्खरिणीओ पच्चोकहा, पच्चोरुहिता त सुबहु पुप्फ गंधवत्थमल्लालंकार' गेण्हइ, गिडि । जेणालेवनागघरए यं जाव वेसमणघा एय तेणेव उवागन्छइ) लेकर वह उस पुष्करिणी से वाहर नीकली-निकल कर उसने समस्त उन पुष्प, गंध वस्त्र, माला, अलंकार आदि को लिया-और लेकर जहां नागधर योवत् वैश्रमण का घर था वहां गई (वागच्छिता तत्थणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य आलोए पणामं करेइ वहां पहुंच कर उसने वहाँ नाग मतिमाओं को यावन् वैश्रमण प्रतिमाओं को दृष्टिपथ होते ही प्रणाम किया। (करिता इंसि पच्चुन्नमइ) प्रणाम कर फिर वह कुछ झकी-(पच्चुन्नमिना लोमहत्थग परामुसइपरामुसित्ता' णागपडिमाओ य जाव वेसमणपडिमाओ य लोमहत्थएणं पमસારી રીતે સ્નાન કરી લીધું અને કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન્ન વગેરેનો ભાગ આપે ત્યારબાદ ભીની સાડી પહેરીને જ તેણે ત્યા જેટલાં કમળ, સસ પત્રવાળા महा भी हुतां ते अधीन पुणीमाथी सदीघा गने (गिहिता पुक्खरिणीओ पचोरुहइ, पच्चोरुहिता तं सुबहं पुप्फगधवत्थमल्लालंकार पहइगिहिता जेगामेव नागघरए य जाव वेसमणघरए य तेणेव उवागच्छद) લઈને તે પુષ્કરિણીની બહાર નીકળી–નીકળીને તેણે બધાં પુષ્પ વસ્ત્ર, ગધ, માળા અલંકાર વગેરે લીધાં અને લઈને જ્યાં નાગધર વૈશ્રમણ ઘર વગેરે હતાં ત્યાં ગઈ (उवागच्छित्ता तत्थ णं नागपडिमाण य जाववेससेणपडिमाण य आलोप पणाम करेइ) त्या पसाबीन तणे ना मने वैश्रवधु वगेरेनी प्रतिमा-याने नेता प्रणाम या (करिता ईसि पच्चुन्नमइ) प्रणाम ४शन ते नीथी नभी (पच्छन्नमित्ता लोम हत्थग परामुसइ परामुसित्ता नागपडिमायो य जाव वेसमणपडिमाओ य
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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