SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 582
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६४ ज्ञाताधर्मकथामने त्ति बेमि' इनि-उक्तरूपं तत्वं यथा तीर्थकरस्य भगवतो महावीरस्य मकामान्मया श्रुतं न तु स्वबुद्धया कल्पित, यतः स्वबुद्धया कथने श्रुत. ज्ञानस्य विनयो भवति, किं च छद्मस्थानां दृष्टयोऽप्यपूर्णा भवन्ति, तस्माद् यथा भगवत्प्रतिपादितमेव त्वां ब्रवीमि-उपदिशामीत्यर्थ इहार्थे चेयं संग्रहगाथा-- मुअणाणस्स अविणओ परिहरणिज्जो परिहरणिज्जो मुहाहिलासीहि । छउमत्याणं दिट्ठी, पुण्णा णस्थित्ति मुइयं इहणा ।। इति मुत्र, ५०॥ ।। इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लम-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललित कलापालापक-प्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक श्री शाह छत्र पति कोल्हापुररानप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य-पद. भूपित-कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि जैनाचार्यजैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालबति-विरचितायां श्री ज्ञानाधर्मकथागमनम्याऽनगार धर्मामृतषिणी टीकायाम् उत्क्षिसनामकं प्रथममध्ययन ममाप्तम् ॥१॥ लिया है, और वह अब प्रमादवरावर्ती होकर उससे स्खलित हो रहा हैया हो चुका है तो उसे पुनः सन्मार्ग में स्थापित करने के लिये गुरु महाराज का कर्तव्य है कि वे उसे उपालभ दवे । जिस प्रकार महावीर मभुने मेघकुमार मुनिराज को दिया है (तिमि) इस प्रकार यह उक्त रूप नत्त जिम तरह तीर्थकर भगवान महावीर मभुके पाससे मैंने मना है, उसी तरह यह तुमसे कहा है । अपनी बुद्धिसे कल्पित कर यह नहीं फहा है । क्यों कि धुद्विसे कल्पित कर कहने में श्रुन जान की आशा तना होती है दमरी बात यह भी है कि उमास्थजीवों की दृष्टिया अपूर्ण होती है । अतः वे वस्तु, का पूर्णरूप प्रतिपादिन नहीं कर सकी । म लिये म पतिपादित अर्थ ही यह तुम से कहा है । इस अर्थम થઈ રહ્યો છે, અથવા તે તે મુક્તિમાર્ગથી ભ્રષ્ટ થઈ ચૂક્યું છે એવી વ્યકિતને કરી સન્માર્ગમાં વાળવા માટે ગુરુહારાજની ફરજ છે કે તેને ઉપાલ ભ આપે છે ने प्रभु मुनि- मेघमारने Gaon मा यो छ (निवेमि) मारीत વાત તત્વ છે જેવી રીતે નાઈ કર બગવાન મહાવીરની પાસેથી સાંભળ્યું છે તેવી જ રીતે જે તમને કફ છે મેં પોતાની બુદ્ધિથી કલ્પના કરીને કહ્યું નથી. કેમકે rદ્રી દિપકનિ કહેવાશી છૂળજ્ઞાનની આશાતના હોય છે. બીજી વાત એ છે કે દર ની દષ્ટિએ અન્ન હોય છે. એટલા માટે પ્રભુ પ્રતિપાદિત અર્થ જ -
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy