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________________ ५४२ शांताधमाकसूत्र 'सणियं' शनै शनैः 'दुरुहिता' दृरुह्य आरुह्य स्वयमेव 'मेहधणसन्निगासं' मेघघन सन्निका-घनीभूत मेघसदृशं श्यामं 'पुढवीमिलापट्टयं' पृथिवी शिलापट्टकपृथियोगिलारूपं पटकम् भालनरूपमित्यधः प्रतिव्य 'सले हणाझसणाए झूसि. यस्स' संन्टेसनानोपण या जुष्टम्य तत्र-संलेग्दना-सलिख्यते कृशीक्रियते शारिधिना शरीरकपायादिरनया इति संलेखना-तपोविशेपः, तस्याः जोपणा-सेवा, तया जुष्टस्य 'भत्तपाणपडियाइक्खियरस' भक्तपानप्रत्याख्यातस्यपरिवर्जितसक्तपानस्य 'पायवोधगयस्स' पादपोपगतस्य, पादपोवृक्षस्तत्साहयमुपगतः तद्वन्निश्चलइत्यर्थः तम्य 'कोलं अणवकंखमाणस्स' कालमनवकाडक्षतः मरणमनिच्छतः मम विहर्तुं श्रेयः, इति संप्रेक्षते-विचारयति संपेक्ष्य-विचार्य कल्ये प्रदर्भूतप्रभाताणं यावत्-ज्वलति-उदिते मर्ये यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तोत्रोपागच्छति उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्व:यं दुरुहित्ता सयमेवं मेहघणसंनिगास) राजगृहनगर के पास रहे' हुए विपुल नामके पर्वत पर धीरे२ चढकर के स्वयम् मेघ के समान श्याम (पुढविमिलापत्य) पृथिवी शिलारूप पटककी (पढिले हेजा सलेहणा झूसणाए झुसियस्स) प्रतिलेखना करूं। मतिलेखना करके फिर मैं संलेखना को प्रीतिपूर्वक सेवन करने के लिये (भत्ताणपडियाइक्वियम्) भक्तपान का प्रत्याख्यान करद। पाद में (पाययोवगयस्स कालं अणवकखमाणस्स विहरिताए) में पादपोपगमन संधाराको काल की-मरण की-इच्छा न करता हुआ धारण फ। (गवं मपेहेइ) इस प्रकार मेवकुमार महामुनिराजने विचार किया (पहिला कल्लं पाउप्पभायाए ग्यणीए जाय जलते जेणेव समणे भगवं महा वीरे नेणे उपागच्छइ) विचार करके फिर वे प्रातःकाल होते ही जय कि मयं प्रकाशित हो चुका था श्रमण भगवान् महावीर के पास पहुंचे એના વિપુલ નામના પર્વત ઉપર ધીમે ધીમે ચઢીને ધનીભૂત થયેલા મેઘની જેમ શ્યામ (डविसिलापट्टयं) पृथ्वी शिक्षा३५ पनी (पडिलेहेज्जा संलेहणानुस. जाए अमियम्म) प्रतिवेगाना प्रतिवेगन या ा मानानु प्रीतिपूर्व पन ४२५ गट (भत्तमाणपडियाइविश्वयम्स) मातपाननु प्रत्याभ्यान (निबंध) 13. न्या२ ५ ( पायबोधगयम्म कलं अणवसंग्त्रमाणस्स विहरित्तए) (भो नी २१५ गत पापागमन सथागने या ४२.(व संपेहेइ) BAR ALE 17 मे बियार च्या (संपेदिता मल्ल पाउप्पमाया मगीन जाय जन जेणेव लमण भगवं महापरि तेणेय उवागच्छद) : પ્રા વિચાર કરીને ત્યારે પ્રભાત ફ્યુ અને સૂર્યનાં કિરણો ચોર રેલાવા RAN भुमिका पार Xxx पान मानी पासे पाया. (उवा- .
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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