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________________ ज्ञाताधर्मकथा ५३२ अणगारे ससदं गच्छइ ससद्दं चिटुइ, उबचिए तवेणं, अवचिए संससोणिएणं, हुयासणे इव भासरा सिपरिच्छन्ने तवेणं तेए णं तत्रतेयसिरीए अई अईव उवसोभेमाण२ चिटुइ । तेणं कालेणं तेणं समएवं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे जाव पुव्वाणुपुव्वि चरमाणे गामाणुगामं दृइजमाणे सुह सुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नयरे जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अहापडिवं उग्गहं उग्गिहित्ता संजनणं तवसा अप्पाणं भामा विरइ ॥ सू० ४७॥ टीका- 'तरण से सेहे अणगारे ते उरालेणं इत्यादि । ततः = भिक्षुप्रतिमा, गुणरत्नसंवत्सरतपः प्रभृतिसमाप्त्यनन्तरं स मेघोsनगार= महामुनिः तेण तेन उत्कृष्टरीत्या समाचरणेन अतएव 'उरालें=प्रधानेन इहलोकाचार्जमावर्जितत्वात चिउलेग' विपुलेन बहुकालसमाचरणात् 'सस्सिरीएण' सभी केण= सगोभेन वाह्याभ्यन्तरग्लानिवर्जितत्वात् 'पयत्तेणं' पद 'न से मेहे अणगारे इत्यादि । टीकार्थ - (णं) इसके बाद अर्थात् भिक्षुप्रतिमा तथा गुणरत्नरूप सचर वाले तप आदि की समाप्ति के अनन्तर (से मेद्दे) वे मेघकुमार मुनिराज (तेग) उत्कृष्ट रीति से आराधित किये उस (तवोकम्मेणं) नपः कर्म कि जो (उलेज) लोक आदि की आशंसा से वर्जित होने के कारण उदाररूप था ( विपुलेन ) बहुतकाल तक आचरित होने के कारण विपुल था (मम्मरीण ) बाघ और आभ्यन्तर की ग्लानि से रहित होने के कारण जो सभीक था (पयंतण) गुरुद्वारा दिया गया होने के कारण 'नए णं से मे अगगारे हत्यादि । टीकार्य - (नए णं ) त्यारा भिक्षु प्रतिभा तेभव गुप्यु २३ भवत्सर वाणा नप कोनी अभासि यही ( से महे) भेध भुनियो ( ते णं ) हृष्टरीते आगचषाभा नापेक्षा ( नवणं) तट ने (उगलेग) ब ेनी साधनाची वहिवार स्तु (विपुलेणं) सुधी गयाना नृत्य प्रार्थी विशुद्ध स्तु (सम्मिरीपणं ) अभ्यन्नी सानिया इति दोवाने सी के अभी: (शोला युद्धा) स्तु (पयचेणं) सामने सोड वात
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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