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________________ ४६० ज्ञाताधर्मकथाम वान् इत्यर्थः 'पंडरसुविसुद्धनिद्धनिख्वयविसहणहे' पांडुर-सुविशुद्ध स्निग्धनिरूपहतविंशतिनखः-तत्र पाण्डुरा: श्वेताः सुविशुद्धाः निर्मला: स्निग्धाः चिक्षणाः निरूपहताः स्फोटकादिरहिताः विंशतिनखा यस्य सः श्वेत निर्मलचिक्कणम्फोटकरहितनखधारीत्यर्थः छद्दन्ते-पट्दन्नः पट्दन्तधारी सुमेरुमभनामा हस्तिराजस्त्वमामीरिति सम्बन्धः। 'तत्थणं तुम मेहा' तत्र खलु त्वं हे मेघ ! बहुभिहम्तिभिर्हस्तिनीभिश्च 'लोट्टएहि य' लोहकैश्चकुमारावस्था पन्न हस्तिबालकैः ‘लोटियाहि य' लोटिकाभिश्च=कुमारावस्थापन्नहस्ति वालि काभिश्च 'कलभेहि य' कलभैश्च-अतिलघुवयस्कहस्तिशिशुभिश्च 'कलभियाहि य' कलभिकाभिश्च 'सद्धि' साध संपरिखुढे' सम्परिवृतः' हत्थिसहस्सणायए' हस्तिसहस्रनायकः- हस्तिनां सहस्र हस्तिसहस्र,तस्य नायकः='देसए' देशका मार्गादिदर्शकः 'पागढी' प्राकी अग्रगामित्वात्, पट्टवए' प्रस्थापको-विविधकार्येषु उन्नत थे। तुम्हारे श्वेत, मुविशुद्ध (निर्मल) चिकने, स्फोटक आदि से रहित ऐसे बीस नख थे। छह तुम्हारे दांत थे। इस प्रकार तुम वहां स्तियों के राजा थे। नाम तुम्हारा सुमेरुप्रभ था। (तत्थणं तुम मेहा) वहा तुम हे मेघ ! (वहूहि इथिहिं य हत्थोणियाहिं य लोहएहिय लोहिया हि य कलभेहि य कलभियाहि य सद्धि संपरिवुडे ) अनेक हस्तियों से अनेक हथनियों से, कुमारावस्थापन्न अनेक हस्ति वालको से कुमारावस्थापन्न अनेक हस्ति बालिकाओं से अति लघुवयस्क हस्ति शिशुओं से अनेक हाथियों की छोटी २ बच्चियों से सदा घिरे रहने थे। तुम (हत्थिसह ससणायए) एक हजार हाथियों के स्वामी थे। (देसए) उन्हें मार्गादिक के प्रदर्शक थे (पागट्टी) अग्रगामी होने के कारण तुम उन्हें घर एक काम में खींचते रहते थे। (पवए) अनेक कार्यों मे उनको नियोजित ઉન્નત હતા તમારા વેત સુવિશુદ્ધ (નિર્મળ) ચીકણું, ઑટક ( લ્લા) વગેરેથી રહિત એવા વીસ નખ હતા તમારે છ દાંત હતા. આ રીતે તમે ત્યાં હાથીઓના २० जुता सुभेनम तमा३ नाम तु. ( तत्थणं तुम मेहा ) मेध! त्या तभ (बहुहि हत्थीहि य हत्थीणियाहिं य लोट्टए हिय लोहियाहि य कलभेहि य कलभि याहि य सद्धिं संपरिडे) डाथी माथी, घी डावणीसाथी, भा२ भवસ્થાવાળા ઘણા હસ્તિગાલેથી કુમારાવસ્થાવાળી ઘણી હસ્તિબાળાએથી ઘણીજ નાની ઉંમરના હાથીના શિશુઓથી ઘણી હાથીઓની નાની બચ્ચીઓથી હમેશાં વીંટળાअसा हेता हता. तभै ( हत्यिसहस्सणायए ) १२ थीमाना स्वामी हता (दमा) तमना भाग वगेरेना प्रश* (ताना२) खता, (पागट्टी) त मे સૌના આગેવાન હતા તેથી તમે બીજા બધાને કામમાં નિયુકત કરતા હતા.
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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