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________________ ४०२ ज्ञाताधर्मकथा तापितस्वर्णं तद्वत् उज्वलो चाक्याचश्ययुक्ती, विचित्रौ विविधशोभासंपन्नो दण्डौ ययोःते नानामणिरत्नखचितकन दण्डयुक्त इत्यर्थः, अतएव 'चिल्लि. याओ' देदीप्यमाने-रमणीयशोभासम्पन्नत्वात् 'मुहुमवरदीहवालानो' मूक्ष्म दीर्धवाले-मूक्ष्मा:=प्रतला श्रेष्ठाः, दीर्धाः आयता 'वालाः' केशा=ययोस्ते तथा, 'संखकुंददगरय अमयमहियफेणपुंजसन्निगासाओ' शङखकुन्ददकरजो. ऽमृतमथितफेनपुजवदुज्वले चामरे गृहीत्वा, सलीलं 'ओहारेमाणीओ२' अवधारयन्त्यौ२ तिप्ठतः। ततःखलु एकावरतरुणी श्रृंगारागार० यावत् कुशला, शिविका यावद् 'दृरुहह' दुरोहति अारोहति, दुह्य आरुह्य, मेघकुमारस्य 'पुरओं' पुरतः अग्रे 'पुरात्थमेण' पौरस्त्ये पूर्वदिग्भागे खलु 'चंदप्पभवहर वेरुलियविमलदंडं' चन्द्रप्रभवज्रवैयविमलदण्डं-चन्द्रप्रभः चन्द्रप्रभावत् वज्रवैयरत्नैः चितो निर्मलो दण्डो यम्य तत 'ताल विटं' तालस्तउज्जवल हैं--चमकीले हैं--तथा जिनकी शोभा विविध प्रकार की है ऐसे दडों से जो मण्डित हे--युक्त हैं-और इसी कारण नो विशेष रूप से रमणीय शोभा संपन्न बने हुए हैं। तथा जिनके बाल मुक्ष्म श्रेष्ट और दीर्घ-लंवे २ हैं और जो शंख, कुंद पुष्प, जलरज. मथित अमृतके फेन पुज के समान उज्वल हैं ऐसे चामरों को लोला सहित लेकर बैठ गई। (तएण तस्स मेहम्स एगावरतरुणी भिंगारा जाव कुसला सीयं जाव दुरुहइ. दुरूहित्ता मेहस्स कुमारग्स पुरओ पुरथिमेणं चंदप्पभवहरवेरुलियविमलदडं ताल टिं गहाय चिठ्ठा) इसके बाद एक उत्तम तरुणी कि जिसका प्राकार श्रृंगार के निकेतन जैसा विशेष शोभास्पद था और जो अपने कार्य संपादन करने में विशेष पड़ी थी मेघकुमार की स पालखी पर चढी और चढकर वह मेघकुमार के ममक्ष पूर्व दिग्भाग की ओर चन्द्रप्रभा के समान वज्र वैडूर्य સુવર્ણની જેમ વિશેષ ઉજજવલ પ્રકાશથી ઝળહળતા, એવી અનેકવિધ શેભાઓ ધરાવતા દરેથી યુકત, વિશેષ રમણીય અને શોભા સંપન્ન, જેમના વાળ ઝીણા શ્રેષ્ઠ અને લાવ્યા છે એવા અને જે શંખ કુંદપુષ્પ, પાણીના રજકણો , અમૃતના મથાએલા ફીણના સમૂહના જેવા ઉજવળ––ચમને વિલાસ પૂર્વક ધારણ કરીને– मेसी 5 (तएण तस्स मेहस्म एगावरतरुणी सिंगारा जाव कुसला सीयं जाव दुरूहह दुरूहिना मेहस्स कुमारस्स पुरओ पुरस्थिमेण चदप्पभवहरवेरुलियविमलदंड तालविंट गहाय चिट्ठइ) त्या२४ मे उत्तम તરણ––કે જેનો આકાર શંગાર નિકેતનની જેમ સવિશેષ શોભા સંપન્ન હતું, અને જે પિતાના કામને પૂરું કરવામાં વિશેષ ચતુર હતી––મેઘકુમારની પાલખી ઉપર ચઢી અને ચઢીને મેઘકુમારની સામે પૂર્વ દિશા તરફ ચન્દ્ર પ્રભાની જેમ હીરા
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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