SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्म कथासूत्रे स्वापतेयं=द्रव्यं-धनं, यानासनशय्याभवनोद्यानादिकं तेषा समाहारः, तत्तथा, अलाहि' अलं=प्रतिपूर्ण यावत् आसप्तमात् कुलवंगात् मकामं दातुं, मकामं भोक्तुं, प्रकामं परिभाजयितुम् 'तं ' तद्धनम् ' अणुहोहि ' अनुभव = भुड् श्वेत्यर्थः तावत् यात हे जात ! हे पुत्र ! विपुलं मानुष्यकम् 'डढ सकारसमुदयं' ऋद्धिसत्कारसमुद्रयम्-तत्र ऋद्धिः = महापुण्योपार्जित संपत्तिः, मत्कारः=सकलजनादरः, तासां यः समुदयः - भाग्योदयः, तम् अनुभव | ततः पश्चात——अणुभूयकलाणे' अनुभूत कल्याण: = कृत संसारसुखानुभवः, श्रमणस्य भगवतो सहावीरस्यान्ति के मत्रजिष्यसि । ततः ख स सेधकुमारी मातापितरावेवमवादीत् तथैव खलु हे बन जाता है ऐसा स्पर्शमणि, मूंगा, पद्मराग आदिलाल रत्न तथा और भी मौजूद जो सारभूत द्रव्य यान, आसन गप्या भवन तथा उद्यान आदिक हैं कि जो अपनी [अ] सात पीढी तक आगे चलता रहेगा और जिसका तुम मनमाना दान करो तो भी समाप्त नही हो सकता है मनमाना जिसका भोग करो मनमाना सगे संबंधियों में भी जिसको दो फिर भी कम न हो कि कितना और रखा है-ऐसे इस अक्षय द्रव्य का तुम [ अणुहोहि ] स्वीकार कर श्रानन्द के साथ भोग करो। (ताव जाव जाया विपुलं माणुस्सगं इडि सक्कार समुदयं) तथा मनुष्य भव संबन्धी काम भोगो को भोगो । एवं ऋद्धि तथा सत्कार से जो तुम्हारा यह भाग्योदय हो रहा है बेटा उसे भोगो । (तओ पच्छा कल्याणे अणुभूय समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पवमसि ) बाद में जब कि तुम संसार के सुखों का खूब अनुभव कर चुका-तब- श्रमण भगवान महावीर के पास दीक्षा लेना । (तएणं से વગેરે લાલ રંગના રત્ના તેમજ બીજા પણુ ઘણાં સાભૂત દ્રવ્યા–જેમકે યાન, आसन, शय्या, लवन तेभन उद्यान वगेरे छे, ? ( अलार्हि ) सायली सात सात પેઢી સુધી આગળ કાયમ રહેશે અને તમે પાતની ઇચ્છા મુજબ દાન આપે તે પણ તે ખૂટશે નહિ, તમે ોઇએ તેટલુ' સગાંવહાલાને આપે તે પણ તે અખૂટ हेथे, भेवा भा अक्षय द्रव्यने तमे (अणुहोहि ) स्वीक्ष मने मानधनी साथै शेते। उपभोग १. (ताव जाव जाया विपुलमाणुस्पग सिक्कार समुदय ) તેમજ મનુષ્યભવના કામભાગે ભાગવા. આ રીતે ઋદ્ધિ તેમજ સત્કાર વડે જ नभारी लाग्योदय थ रह्यो है, तेने लोगो (तथे पच्छा कहाणे अणुभूय समणम्स भगवओ महावीरस्य अंतिए पञ्चस्ससि) पछी व्यारे तमे संभार સુખાના સારી પેઠે ઉપભોગ કરી લે ત્યારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પાસે જઇને 5 ३००
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy