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________________ - ३०८ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे कर्मक्षयलक्षणं मोक्षरूपम्, आणयतिप्रापयात भव्यान् इति कल्याणस्त, मङ्गलंहितकरं 'देवयं' दैवतं देवतैव दैवतं स्वार्थेऽण' धर्मदेवमित्यर्थः 'चेइयं' चैत्यं= सर्वथा विगिष्टज्ञानवन्तं 'पवासामो' ' पर्युपास्महे-निरवधभावेन आराधयामः, 'एयं' एतत् पर्युपासनं 'नो' न:-अस्माकं, 'पेच्चभवे' प्रेत्यभवे' परभवे 'हियाए' हिताय-पथ्याहार इव, 'सुहाए' सुखाय, भवभ्रमणविरमणजनितशान्तये, 'खमाए' क्षमाय-मोक्षमार्गाराधनक्षमता सिये, 'निस्सेयसाए निःश्रेयसाय% मोक्षाय, 'अणुगामित्ताए' अनुगामिकत्वाय भवपरम्पगसुखानुवन्धिसुखाय भविष्यतीति कृत्वा-इतिवहवः 'उग्गा' उग्राः ऋपभदेवेन आरक्षकपदे नियुक्ताः कोपाला रक्षकवंशजाः, जाव यावत्, अत्र यावच्छन्दन-इदं द्रष्टव्यम् 'उग्गपुत्ता' उग्रपुत्राः "भोगा' मोगा:ऋषभदेवावस्थापितगुरुवंशजा:-गुरुस्थानिया इत्यर्थः, 'भोगपुत्ता' भोगपुत्रा', एवं 'राइन्ना' राजन्या:-भगवद्वंशजाः, 'खत्तिया' जो भव्य जोवों के लिये भवरोग रहितत्वरूप कल्प की कि जो सकल कर्म क्षथरूप है मोक्षकी प्राप्ति कराने में निमित्तभूत होता है ऐसे कल्याण रूप तथा मंगलरूप, धर्मदेव की जो चैत्य रूप सर्वथा विशिष्ट ज्ञानशाली है चलो पयुपासना करें-निरवधभाव से उनकी आराधना करें। "एयंनो पेचभवे हियाए, सुहाये, खेमाए, निस्सेयसाए, अणुगामित्ताए” इस तरह की गई पधुपासना हम लोगों को परभव में हित के लिये भवभ्रमण के विरमण से जनित शान्ति के लिये, मोक्षमार्ग के आगधन की क्षमता प्राप्ति के लिये मोक्ष के लिये तथा भव परम्परामे सुखानुबंधी सुख के लिये होगा. इस भावना से (वहवे) अनेक (उग्गा) रक्षक वंशज पुरुष कि जिन्हें ऋषमदेवने आरक्षक (कोटपाल) पद पर नियुक्त किया था वे तथा यावत् शब्द द्वारा (उग्गपुतt) भोगा, भोगपुत्ता ज्ञइन्ना खत्तिया, રોગ રહિતત્વરૂપ કલ્યની–કે જે સકલ કર્મક્ષય રૂપ મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવવામાં નિમિત્તભૂત હોય છે, તેનું નામ કલ્યાણ છે એવા કલ્યાણરૂપ તેમજ મંગળરૂપ ધર્મદેવનીકે જે ચિત્યરૂપ સર્વથા વિશિષ્ટ જ્ઞાનશાળી છે ચાલો આપણે પર્યું પાસના કરીએ નિરपछ लावे तभने माराधीमे गयं नो पेच्चभवे हियाए, सुहाए, खमास, अणुगमित्ताए' मा प्रभारीनी पर्युपासना मभने ५२सवमा तिना भाटे, अवनभाना વિરમણથી જનિત શાંતિના માટે, મોક્ષ માગના આરાધનના સામર્થ્યને માટે, મોક્ષના भाटे तेभर लव ५२ परामा सुभानुजयी सुमना भाटे थशे. २मा भावना द्वारा (वहवे) घा (उग्गा) २६ पुरुषा-३ भने म मा२१४ (वार) पहे नियुश्त या जता तेगा तेभा यावत्' १४ ॥२॥ (उग्गपुत्ता भोगा, भोगपुत्ता,
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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