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________________ २४७ - अनगारधर्मामृतवर्षि टीका अ, १ २० लेघकुमारजन्यनिरूपणम् कुत्सितार्थकः, कुदण्डकरणस्य रानधर्माभागात, 'अपरिमं' अधरिमां-अविद्यमानं धरिमं ऋणद्रव्यं यरयां सा तां, उत्तमणाधमाश्या पररपरं तहण निवारणार्थ न कलहनीयं किन्तु तत्र द्रव्यं राज्ञा देयं भविष्यतीति भावः। अवारणिज' अधारणीयाम्-अविद्यमानो धारणीयोऽधामो यस्यां सा, तांकेनापि पुरुषेण कस्मादपि ऋणं न प्रावं, तस्मै ऋणग्राहकाय राज्ञा धनमपुन ग्रहणाय दास्यते इति भावः । 'अणु यमुइंग' अनुसा-अनु अनुक्रमेण अवि च्छेदेन उद्धता:-उत्साहपूर्वकं वादिताःसृदङ्गा वादः यस्य सा तांताक्ताम्, 'अमिलायमल्लाम' अरलानमाल्बदामां-तोरणादि यथायोग्य स्थानेषु विविधवर्ग कुत्सित अर्थ का वाचा नहीं हैं-किन्तु अल्प अर्थ का याचक हैं १० दिवस तक दंड और कुदंड दोनों माफ किये जाते हैं। (अघरिस) १० दिवस पर्यन्त राज्य की तरफ से ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि कर्जदार और कर्ज देने वाले दोनों व्यक्ति परस्पर न लडें । कजेदार के ऊपर जितना भी कर्ज देने वाले का कर्जा होगा-वह राज्य की तरफ से उसे अदा कर दिया जायेगा। (अधारणिज्ज) किली सी गजाजन को यदि पैले की जरूरत पडती है तो यह किसी भी साहूकार से ऋण न ले । १० दिवस तक ऐसी व्यवस्था राज्य की ओर से की गई है कि उसे आवश्यकतानुसार द्रव्य राज्य देगा। और उसे वह पुनः वापिस न लेगा (अणुंडयमुईगं) तथा १० दिवन पर्यन्त ऐसी भी व्यवस्था कर दी जावे 'कि जिस से उत्साह पूर्वक निरन्तर बाजे बजाने वाले बाजे जाते रहें। ' (अभिलायमल्लदाम) तथा जो तोरणादि वाधने के स्थान हैं उनमें विविध કુત્સિત અર્થને સૂચવનાર નથી, પણ અ૫ (ડું) અર્થને સૂચવનાર છે આજથી इस हिवस सुधी है। मने 3 पन्ने मा ४२वामां आवे छ (अधरिम) दृशદિવસ સુધી રાજ્ય તરફથી આ જાતની વ્યવસ્થા પણ કરવામાં આવે છે. ત્રણ લેનાર અને ઋણ આપનાર અને વ્યકિત એક બીજાથી લડે નહિ. ત્રાણ લેનાર ઉપર જેટલું ऋY Pापना२ शे ते मधु २न्य त२थी यूववाभावो (अधारणिज्ज) કૈોઈ પણ પ્રજાના માણસને જે પૈસાની જરૂર જણાય તો તે કેઈ સાહૂકાર પાસેથી જેણે ન લે, પણ દસ દિવસ સુધી એવી વ્યવસ્થા કરવામાં આવી છે કે તેને આવશ્યકતા મુજબ ધન પૂજ્ય તરફથી આપવામાં આવશે અને તે ફરી પાછું નહિ લેવામાં આવે. (अणु यमुइंगं) तम स हिवस सुधी २ तनी व्यवस्था पा ५२वामा मावे छे थी • उत्साहपूर्व alariant-या सतत पाrint 413ता २५ २६ अभिलायमल्लनाम) तमा તરણ વગેરે બાંધવાની જગ્યાએ અનેક જાતના સુવાસિત પુષ્પની માળાઓ લટકાવવામાં આવે
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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