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________________ अगर धर्मामृतवर्षिणीटीका अ. १ सू. २० मेघकुमारजन्मनिरूपणम् ર૩ > तासां दामीत्यमपनीतवान् इत्यर्थः तथा 'पुत्ताणुषुत्तियं वित्तिं कप्पेड़ ' पुत्रानुपुत्रिकां वृत्तिं कल्पयति पुत्रपौत्र भोगयोग्यां जीविकां ददातीत्यर्थः, कल्पयित्वा = कृत्वा 'fs 'विसज्ज' प्रतिविमर्जयति । ततः खलु स श्रेणिको राजा कौटु म्बिक - पुरुषान् शब्दयति = आहृयति, शब्दयित्वा = आहूय एवमवदत् = वक्ष्यमाणरीत्या पुत्रजन्मोत्सवार्थं कथितवान् जो देवानुप्रियाः । राजगृहं नगरम् 'आसिय जाव परिगीय' आसिक्त यावत् परिगीतम् इह यावच्छन्देन 'आसिय संमज्जि - ओलिन' इत्यादि, द्रष्टव्यम्, आसिक्तसंमार्जितोपलिप्तम् - आसिक्तं = जलसे - चमेन, संमाजितं - कचत्रपनयनेन, उपलितं-गोमयादिना, इत्यादि तथा (सक्करित्ता सम्माणित्ता मत्थयधोयाओ करेइ) सत्कार सन्मान कर के फिर उसने उन्हें भरतकधौत किया-अर्थातदासीपने के कृत्य से मुक्त कर दिया और (पुत्ताणुपुतियं वित्ति कप्पे ) पुत्र पौत्र सोग्ययोग्य आजीविकां से युक्त कर दिया । अर्थात् उन्हें इस तरह की जीविको लगादी कि जिससे उनके पुत्र पौत्र तक भी बैठे खा सके। ( कप्पित्ता पडिविसज्जे ) इस तरह की उनकी व्यवस्था करके फिर राजाने उन्हें वहां से विसर्जित कर दिया। (तएण से सेणिए राया कौटुबियपुरिसे सदावेइ) पश्चात् उन श्रेणिक राजाने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया (सद्दावित्ता एवं वयासी) और वुलीकर उनसे ऐसा कहा - (खिप्पामेव भो देवाणुपिया ? रायगिहं नयरं आसिय जाव परिणीयं करेह) हे देवानुप्रियो ? तुम लोग शीघ्र से शीघ्र राजगृह नगर को असिक, संमार्जित तथा उपलिस करो - अर्थात् जल सींचकर उसे आसिक्त करो कूडा करकट हटाकर उसे संमार्जित करो और गोमय તે અંગપરિચારિકાઓને ‘મસ્તક ધૌત કરી' એટલે કે દાસીપણાના કામથી મુકત કરી અને (पुत्ताणु पुत्तियं वित्ति कप्पेड़ ) पुत्र भने पौत्र लोग्य सावित्र मनावी डीधी. એટલે કે તેમને એવી આજીવિકા કરી આપી કે તેથી તેમના પુત્ર અને પૌત્ર સુદ્ધાં मान: पूर्व मेठा मेठा लवन पसार री . ( कपिता पडिविसज्जेइ) आा लतनी व्यवस्था उरीने शन्नये तेभने विहाय आधी. (तएवं से सेणिए राया कौडबियपुरिसे सहावेइ) त्यारमाह श्रेणि शन्नये टुभिः पुरुषाने मोसाव्या. (सावित्त एवं वयासी) भने गोसावीने (खियामेत्र भो देवाणु पिया ? रामहिं नगरं आसिया जात्र परिगीयं करेह) हे देवानुप्रियो ? तभे જલદી રાજગૃહનગરને આસિકત સમાર્જિત તેમજ ઉપલક્ષ કરે એટલે કે પાણી છાંટીને તેને સિચિત કરા, ચરા સાફ કરીને તેને સમાર્જિત કરો અને છાણુ વગેરેથી
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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