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________________ अनगारधर्मामृतवर्षि टीका. अ १. १६ अकालमेघदोहद निरूपणम् 1 देवागमनस्य द्वितीयमकारोऽपि वर्ण्यते - 'ताए उक्किट्ठाए' तथा उत्कृष्टया= उत्कर्षयुक्तया प्रसिद्धोत्तंमगत्येत्यर्थः, 'तुरियाए' त्वरितया = 'मम मित्रं किमर्थ - मां स्मरति' इति व्याकुलता युक्तया 'चवलाए' चपलया = 'निज मित्रकार्य हुततरं करिष्यामी' ति कायतोऽपि 'चवलाए' चंचलया, 'चंडाए' चण्डया = पबलया मित्रविरहस्य दुःसहरूपतया प्रवलया, 'सीहाए' सिंहया = सिंहवत् मब्बलबलयुक्तया 'उछुयाए' उतिया = 'झटिति मित्रमिलनं भवेत्' इत्युद्धावमानया 'जणीए' जयिन्या मित्र आगमन का दूसरा प्रकार इसतरह से भी वर्णित हुआ है - (ताए उक्कि ट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सीहाए उभ्याए जहणीए पाए दिवाए देवगइए) जब वह देव अभयकुमार के पास आया था तो उसकी वह दिव्य गति कैसी थी - इसीका वर्णन इस सूत्रांश द्वारा किया गया हैंसूत्रकार कहते हैं कि उसकी वह दिव्यगति उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चंड, सिंह, जैसी उत जयिनी, छेक एवं दिव्य थी । क्यों कि देवके मनमें ऐसी मल भावना उठ रही थी कि मैं कब जाकर अभयकुमार को देखलं - अतः वह गति उत्कर्ष युक्त थी । मेरा मित्र मुझे क्यों स्मरण कर रहा है- क्या कारण है इस तरह की विचार से उसकी गति से त्वरा आ गई थी मैं अपने मित्र का कार्य बहुत शीघ्र ही कर दूंगा - वहां पहु तो पाऊँ - इस तरह की भावना से उस के शरीर में भी चंचलता आजाने के कारण वह गति भी चंचल हो गई थी । अभयकुमार की स्थिति ख्याल कर उस देव को उसका विरह असल हो रहा था । अतः उसकी गति में प्रबलता आगई थी। सिंह की जैसी गति बलवि ष्ट (नाए उकियट्ठाए तुरियाए चवलाई चडाए सीहाए उयाए जइणीए छेपा : दिवाण देवगइए) मलय भारनी सामे अडथती वणते हेवनी हिव्यगति देवी હતી એજ વન સૂત્રકાર આ સૂત્રશદ્વારા કરે છે—તેઓ કહે છે કે—દેવની દિવ્યगति उत्कृष्ट, त्वस्ति, यथा, थ3, सिह नेवी उद्धृत कयिनी (न्यशीसा) छेउ भने દિવ્ય હતી. દેવના મનમાં એવી પ્રખળ ભાવના જાગી હતી કે કયારે કે અભયકુમારને મળું એટલા માટેજ તે ગતિ ઉત્કૃષ્ટ' હતી. મારા મિત્રમારૂ કેમ સ્મરણ કરી રહ્યો છે એવા વિચારોને લીધે તેની ગતિમા ત્વરા (શીઘ્રતા) આવી ગઇ હતી. ત્યાં જતાંજ હું માગ મિત્રનુ કામ ઝડપથી કરી આપીશ આ જાતના વિચારેાથી તેની ભાવનામાં સ્મૃતિનું સ ચરણુ થયુ હતુ તેથીજ તેની ગતિ પણ ચંચળ થઇ ગઇ હતી. અભયકુમારની હાલતને વિચારતાંજ દેવને તેના વિરહ અસહ્ય યઈ પડયા હતા, એથીજ તેની ગતિમાં પ્રમળતા આવી ગઇ હતી. સિહ જેવી ગતિ મળશાલી હાય છે, તેની ગતિ પણ સિંહ २१५
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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