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________________ २१४ = शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे टीका-'नएण इत्यादि। तत वलु अभयकुमारसमीपे मित्र देवस्प समागमनानन्तरं ‘से देवे' अमौ मित्रदेवः अंतलिखपडिबन्ने' अन्तरिक्षपतिपन्नः आकाशस्थः । ननु कथमसो गगनस्थ एवे ? ति श्रृणु देवाः स्वभावतो भूमि न म्पृशन्ति भूमितश्चतुर लमृर्ध्वमेवावतिष्ठन्ते, तथा ते निमेष रहितो मनसैव सर्वकार्य साधका अम्लानपुष्पमालाधारिणो भवन्ति । अथ मुरवस्त्रं वर्ण्यते'दसद्धबन्नाइ' दगार्द्धवानिपञ्चवर्णानि 'सखिन्विणियाई ?' समिङ्किणिकानि= क्षुद्रघंटिकायुक्तानि 'पवरवत्थाइ' प्रवरवस्त्राणि तादृशानि श्रेष्ठबत्राणि 'परिहिए' परिधृतः 'एछो तान एसो गमो' एकस्तावत् एषागमः-प्रथमो बोधः अभय. कुमारस्य पूर्वसंगतिकदेवदर्शनं जातमित्यर्थः। 'अण्णोवि गमो' अन्योऽपि गमः 'तएणं से देवे' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं से देवे) ईसके बाद कि यह देव पौषधशाला में अभयकु. मार के पास आया-सो वह वहां भूमि पर नहीं उतरा किन्तु (अतलिक्ख पडियन्ने) भूमि से ४ अंगुल ऊपर आकाश में ही स्थित रहा । कारण देवा का ऐसा स्वभाव होता है कि वे भूमि का स्पर्श नही करते। भूमि से ४ अंगुल ऊपर अधर ही रहते हैं। उनकी आंखों के पलक नही. गिरतेकिन्तु वे निर्निमेष होते हैं। तथा अपने भक्तों के कार्य को मिद्धि वे प्रन से ही कर दीया करते हैं (सदा इनके कंठ में अम्लान पुष्पों की माला रहा करती है। (दसवन्नाइ मग्विग्विणियाई पवरवत्थाई परिहिए) इस देवने जो चम्बपहिरे हुए थे वे ५ पंचवर्णवाले एवं क्षुद्रघटिकाओ से युक्त थे। और बहत ही उत्तम थे। (एको ताव एसो गमो) इसतरह अभय अनार को पूर्वसंगनिक उम देव के दर्शन हए (अण्णो वि गनः) तथा उनके 'न एण से देवे इत्यादि टा-(न एणं में दवे) त्या२॥हते देव पौषधशामा समयाभारनी पासे माव्य। त्या ने भि ५२ त्यो नडि पy (अलिखपडिवन्ने) भूमिथी या२ मा ઉપર આકાશમાં જ અદ્વર સ્થિર રહ્યો કેમકે દેવોનો સ્વભાવ એવો હોય છે કે તેઓ ભૂમિને સ્પર્શતા નથી ભૂમિથી ચાર આંગળ ઉપર અદ્ધર જ રહે છે આખના પલકારા થતા નથી તેઓ નિનિમેષ હોય છે પિતાના ભકતોની કાર્યસિદ્ધિ તેઓ મન દ્વારા । ४२ 2. भन्सान प्यानी भा भेशा अमन शामती २९ छ (दसट्टवन्नाट पिग्विणिया पवग्वत्थाई पगिदिए) 0 देवे पटेरेसा वो पाय રંગના તેમજ શુદ્ર (નાની) સુંદર ઘૂઘરીઓવાળા હતા તે ખૂબજ ઉરામ હતા (एसोनार पमो गमो) आदत मगति वना नयभारने शन यया (अण्जो विगमः) हेपनी मागभनk arfन भी शत पए ४२वामां आव्यु .
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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