SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ १ म १४ अकालमेघदोहदनिरूपणम् ____२०३ संगतियो देवो मम लधुमातुर्धारिण्या देव्या इममेतदूपम् 'अकालमेहेसु' अकालमेधेषु अकालमेघविषयकं दोहद 'विणेहिइ' विनेष्यति-पूरयिष्यतीत्यर्थः। एवं संप्रेक्षते-विचारयति, सं क्ष्य यत्रैव पौपधशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पौषधशालां प्रमार्जयति, प्रमाय, उच्चारप्रस्रवणभूमि प्रतिलेखयति, प्रतिः लेख्य दर्भसस्तारकं प्रतिलेखयति, प्रतिलेख्य दर्भसंस्तारकं दुरूहइ' दृरोहति= दर्भासनोपरि समुपविशतीत्यर्थः, दुरुह्य-समविश्य, अष्टमभक्तं प्रतिगृह्णाति, पतिगृह्य पौषधशालायां पौषधिकः ब्रह्मचारी यावत् पूर्वसंगतिकं देवं मनसि कुर्वन् २ मेहेसु डोहलं विणेहिइ) इस तरह पूर्व संगतिक देव मेरीछोटी माता धारीणीदेवी के इस अकाल मेघों में स्नान करने रूप दोहले की पूर्ति कर देगा। (एवं संपेहेइ) इस प्रकार अभयकुमारने विचार किया-(संपेहित्ता जेणेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छई उवागच्छित्ता पोसहसालं पमजई पमजित्ता उच्चारपासवणभूमिपडिलेहेइ) और विचार करके फिर वे जहां पौषध शाला थी वहीं गये-जाकर उन्होंमे पौषध शोला को साफ करके फिर उन्हों ने उचार और पासवणभूमि की प्रतिलेखना की अर्थात् लघुनीत और बड़ी नीत की भूमि की प्रतिलेखना की (पडिलेहित्ता दम्भ मंथारगं दुरुहइ) प्रतिलेखना करके वे दर्भ संथारे पर बैठ गये (दुहित्ता अट्ठमभन पडिगिण्हइ) बैठ कर वहां उन्होंने अष्टमभक्त धारण कर लिया। (परिगिण्डित्ता पोसहसालाए पोमहिए बंभयारी जाव पुव्वसंगइयं देव मणसि करेमाणेरचिट्ठइ) इस तरह अष्टमभक्त धारण कर वे अभयकुमारपौषधवती तथा ब्रह्मचारी आदि होकर उस पूर्व संगतिक देव का यार२ स्मरण देवे ममचुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयावं अकालमेहेसु डोहलं विणेहिह) २ ते पूर्व सतिदेव (पूर्व लव भित्रव) भा॥ नाना (अ५२) माता धारिणीदवीनु २माणे भेवामा नावानु हाई धुरु ४२शे. (एव संपेहेइ) ममयभारे माम दियाथु (संसपेहिजे व पोमहसाला तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जड पमज्जित्ता उच्चारपासवणभृमि पडिलेहेइ) વિચાર કરીને તેઓ પિષધશાળામાં ગયા, ત્યાં જઈને તેઓએ પૌષધશાળાને સ્વચ્છ બનાવી સ્વચ્છ બનાવીને પછી તેઓએ ઉચ્ચાર અને પાસવણભૂમિની પ્રતિલેખના કરી એટલે धुशी मने मी अनास्थानने न्यु. (पडिलेहितादब्भसंथारगं दुरुहइ) प्रतिमना शन मा ल स था। ५२ मेसी गया. दुरुहिता अठमभत्तं पडिगिण्डइ) मेसीन तेमागे मटममात घा२५ ध्यु ! (परिगिहित्ता पोसहसालाएबंभयारो जाव पुव्वसंगइयं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठइ) मटमलात ધારણ કરીને અભયકુમાર પૌત્રી અને બ્રહ્મચારી વગેરે થઈને પૂર્વભવના મિત્ર
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy